22-Jul-2017 08:13 AM
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भारत प्रदर्शनकारियों का देश है। वीर प्रदर्शनकारियों का। यहां ऐसे-ऐसे वीर सपूत हैं, जो वेलेंटाइन डे पर अपनी असीम ऊर्जा से प्रेमियों की ऐसी-तैसी कर राष्ट्र की संस्कृति को बचाते हैं।
एक चुंबन पर नाराज होने पर बसें फूंक देते हैं। भले ही कबीर के मसि कागज छुयौ नहीं, कलम गहि नहीं हाथ वाले सूत्र पर यकीं रखते हों, लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट उनके मुताबिक न हो
तो बिना फिल्म देखे सेट तोड़ सकते हैं।
भले उन्होंने कभी 150 किलोमीटर की रफ्तार से कान के पास से गुजरती गेंद की सांय-सांय महसूस न की हो लेकिन क्रिकेट में टीम मैच हार जाए तो खिलाडिय़ों के घर पत्थर फेंकने को अपना धर्म समझते हैं।
इस वक्त भी देश में प्रदर्शनकारियों की धूम मची है। पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक अलग-अलग वजहों से प्रदर्शन चल रहे हैं। लेकिन प्रदर्शनकारियों की दिक्कत यह है कि उनके प्रदर्शन में एकरूपता नहीं है।
कहीं कोई आगजनी कर रहा है तो कहीं कोई पत्थर फेंक रहा है। कोई धरने पर बैठ जाता है तो कोई सिर्फ पुतले फूंक रहा है। कोई नग्न प्रदर्शन कर रहा है तो कोई नरमुंड हाथ में लिए अपनी समस्या बताना चाहता है।
मतलब यह है कि जितने प्रदर्शनकारी-उतने प्रदर्शन के तरीके। एकरूपता के अभाव में प्रदर्शनकारी छोटे-छोटे गुटों में सिमटे रह जाते हैं, और उनकी ताकत सरकार समझ नहीं पाती।
अपना मानना है कि प्रदर्शनकारियों के प्रदर्शन में एकरूपता लाई जाए। इससे न केवल प्रदर्शनकारियों को फायदा होगा बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी लाभ होगा। मसलन प्रदर्शनकारी तय करे कि फलां साल प्रदर्शन के दौरान ड्रेसकोड कुर्ता पायजामा होगा और बतौर विरोध सिर्फ पत्थर फेंके जाएंगे।
इससे छोटे-छोटे कांट्रैक्टर पूरे देश में पत्थर उपलब्ध कराने का ठेका ले सकते हैं। जहां-जहां प्रदर्शन हो-वहां मेडिकल स्टोर वाले दो-दो डॉक्टरों को लेकर अपना तंबू खोल सकते हैं, क्योंकि उन्हें पहले से मालूम होगा कि प्रदर्शन के दौरान पत्थर चलेंगे। इससे कुछ नए डॉक्टरों को काम मिलेगा। मेडिकल स्टोर्स की आय बढ़ेगी। कुर्ते पायजामा की जोरदार बिक्री हो सकती है।
पुलिसवाले हेलमेट मंगाने का ठेका दे सकते हैं। कहने का मतलब यह कि सिर्फ प्रदर्शन के तरीके में एकरूपता आने भर से देश की अर्थव्यवस्था को लाभ हो सकता है।
प्रदर्शन से अर्थव्यवस्था को लाभ होने की स्थिति में सरकार प्रदर्शनकारियों के लिए कुछ खास योजनाएं ला सकती है। मनरेगा की तर्ज पर प्रदर्शन रोजगार योजना लाई जा सकती है।
वैसे, इस वक्त देश में जो माहौल है, उसमें सरकार प्रदर्शनकारियों को कुछ वेतन देना शुरू कर दे तो प्रदर्शनकारी रोजगार प्राप्त युवाओं में तब्दील हो सकते हैं। इस तरह झटके में करोड़ों नए रोजगार निर्मित हो जाएंगे। सरकार फिर कह सकती है कि हमने जितने रोजगार देने का दावा किया, उससे ज्यादा रोजगार निर्मित किए।
प्रदर्शन के बाबत एक गाइडलाइन भी जारी होनी चाहिए। जैसे जब तक प्रदर्शन स्थल पर तमाम चैनलों के कैमरे न पहुंच जाएं तब तक हंगामे-तोडफ़ोड़ की शुरुआत न हो। प्रदर्शनकारी खुद भी तोडफ़ोड़ करते हुए अपने विजुअल्स कैमरे में कैद करें ताकि किसी जगह चैनल के कैमरे न पहुंचे तो वो खुद ऑथेंटिक फुटेज उपलब्ध करा सकें।
नारेबाजी, धरना, तोडफ़ोड़ वगैरह एक कला है यानी प्रदर्शन एक पैकेज है, जिसे हर व्यक्ति नहीं कर सकता। बेहतरीन प्रदर्शन के लिए खास तरह के कौशल की आवश्यकता होती है। ऐसे में जरूरी है कि प्रदर्शनकारी बनाने के लिए गली-मुहल्ले में कोर्स शुरू हों।
एक हफ्ते में पुतला फूंकने के सर्टिफिकेट कोर्स से लेकर बसों में आग लगाने, पटरी उखाडऩे, आंसू गैस में टिके रहने और यदा-कदा बमबारी करने जैसे कौशल सिखाने के लिए डिप्लोमा शुरू किया जा सकता है।
इस कोर्स में यह भी सिखाया जाए कि जब किसी मुद्दे पर प्रदर्शन न हो तो मुद्दा कैसे क्रिएट किया जाए। इस तरह के कोर्स शुरू होने से देश के हजारों प्रदर्शनकारियों को बतौर गेस्ट फैकल्टी रोजगार मिल सकता है।
वैसे, प्रदर्शन, हंगामे, उपद्रव का एक लाभ यह भी है कि इससे पुलिस बल सक्रिय रहता है। कहीं कोई उपद्रव नहीं होगा तो पुलिस वाले भी तोंद मलने लगेंगे। लोकतंत्र में विपक्ष चाहता है कि इस तरह के प्रदर्शन-तोडफ़ोड़ वगैरह होते रहें ताकि उन्हें सरकार को घेरने के मौके मिलते रहें। सरकार चलाना तो सरकार का काम है, विपक्ष का काम तो
किसी न किसी बात पर सरकार को घेरना है।
सरकार भी चाहती है कि प्रदर्शनकारी कुछ बवाल काटें ताकि उनकी समस्या का हल किया जाए। यानी सरकार प्रदर्शनकारियों को समझाए बुझाए और शांति स्थापित करे। इससे जनता में भाव जाता है कि सरकार निकम्मी नहीं है। वो कुछ कर रही है।
चलिए, चलता हूं। इतने बहुमूल्य सुझाव देने के बाद एक मुहल्ला स्तरीय प्रदर्शन में हिस्सा लेने जाना है। ध्यान रहे, मेरे सुझाव पर अमल हुआ तो रॉयल्टी सिर्फ मेरी होगी।
- अनाम