आम आदमी और बाढ़ का सुख
17-Aug-2016 06:57 AM 1234831
शीर्षक की सार्थकता रखते हुए पहले आम आदमी: की बात कर लें। आम एक स्वादिष्ट, मंहगा और मौसमी फल है, जिसकी आमद बाढ़ की तरह साल में एक बार ही होती है। मजे की बात है कि आम चाहे जितना भी कीमती क्यों न हो, अगर वह किसी भी शब्द के साथ जुड़ जाता है तो उसका भाव गिरा देता है। मसलन - आम आदमी, आम बात, आम घटना, दरबारे आम, आम चुनाव इत्यादि। अंतत: हम सभी आम आदमी की भौतिक उपस्थिति और उनको मिलने वाले पंचवर्षीय सम्मान से पूर्णत: अवगत हैं। मैं भी उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ जिसका जन्म कोसी प्रभावित क्षेत्र में हुआ है। एक लघुकथा की चर्चा किए बिना बात नहीं बनेगी। बाढ़ के समय आकाश से खाद्य - सामग्री के पैकेट गिराए जाते हैं और प्रभावित आम आदमी और उनके बच्चे उसे लूटकर खूब मजे से खाते हैं (क्योंकि आम दिनों में तो गरीबी के कारण इतना भी मयस्सर नहीं होता)। बाढ़ का पानी कुछ ही दिनों में नीचे चला जाता है और आकाश से पैकेट का गिरना बंद। तब एक मासूम बच्चा अपनी माँ से बड़ी मासूमियत से सवाल पूछता है कि - माँ बाढ़ फिर कब आएगी? अपने आप में असीम दर्द समेटे यह लघुकथा समाप्त। लेकिन बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है और वह पुन: बाढ़ की अपेक्षा करता है एक सुख की कामना के साथ। मौसम में सावन-भादों का अपना एक अलग महत्व है। दंतकथा के अनुसार अकबर भी बीरबल से सवाल करता है कि - एक साल में कितने महीने होते हैं? तो बीरबल का उत्तर देता है कि - दो, यानि सावन-भादों, क्योंकि पूरे साल इसी दो महीनों की बारिश की वजह से फसलें होतीं हैं। एक फिल्म आयी थी सावन-भादों और उससे उत्पन्न दो फिल्मी कलाकार नवीन निश्चल और रेखा आज भी कमा खा रहे हैं। कभी आपने सुल्तानगंज से देवघर की यात्रा की होगी तो यह अवश्य सुना होगा कि इस एक सौ बीस किलोमीटर की दूरी में बसने वाले आम आदमी मात्र दो महीने अर्थात सावन- भादों की कमाई पर ही साल भर गुजारा करते है। चूँकि यह एक लोकोक्ति-सी बन गयी है, अत: इसकी सच्चाई पर संदेह करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। ठीक इसी तरह कोसी परियोजना (या फिर बाढ़ नियंत्रण विभाग, जल-संसाधन विभाग या फिर और कुछ) से जुड़े सरकारी लोगों के लिए सावन-भादों का अपना महत्व है और उससे उपजे सुख से उनका साल भर बिना नियमित वेतन को छुए, बड़े मजे से गुजारा चलता है। यदि बाढ़ आ जाए तो फिर क्या कहना? भारत भी अजब राष्ट्र है जिसके अन्दर महाराष्ट्र जैसा राज्य है। ठीक उसी तरह बिहार राज्य के अन्दर एक ही जिले का नाम बाढ़ है और बाढ़ को छोड़कर कई जिलों में हर साल बाढ़ आती है। जहाँ पीने के पानी के लिए लोग हमेशा तरसते हैं, वहाँ के लोग आज पानी-पानी हो गए है और रहिमन पानी राखिये को यदि ध्यान में रखें तो प्रभावित लोगों का आज पानी खतम हो रहा है। बाढ़ के साथ कई प्रकार के सुख का आगमन होता है। जैसे बाँध को टूटने से बचाने के लिए उपयोग लाये जाने वाले बोल्डर, सीमेंट का भौतिक उपयोग चाहे हो या न हो लेकिन खाता-बही इस चतुराई से तैयार किए जाते हैं कि किसी जाँच कमीशन की क्या मजाल जो कोई खोट निकल दे। रही बात राहत-पुनर्वास के फर्जी रिहर्सल की, वो भी बदस्तूर चलता रहता है। न्यूज चैनल वालों का भी सबसे पहले पहुँचने का एक अलग सुख है। बेतुके और चिरचिराने वाले सवालों का, मर्मान्तक दृश्यों को बार-बार दिखलाने का, नेताओं के बीच नकली मीडियाई युद्ध कराने का भी आनंद ये लोग उठाते हैं। कटा के अंगुली शहीदों में नाम करते हैं वाली बात साक्षात चरितार्थ होती है। थोड़ी राहत - थोड़ा दान, महिमा का हो ढेर बखान - यह दृश्य भी काफी देखने को मिलता है। एक से एक आम जनता के तथाकथित शुभचिंतक कहाँ से आ जाते हैं, राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए कि क्या कहूँ? बाढ़ के कारण चाहे लाखों एकड़ की फसलें क्यों न बर्बाद हो गईं हों, लेकिन राजनितिक फसल लहलहा उठती है। राजनीतिज्ञों के हवाई-सर्वेक्षण का अपना सुख है। ऊँचाई से देखते हैं कि आम आदमी कितने पानी में है? और आकाश से ही तय होता है कि अगले पाँच बरस तक आम आदमी की भलाई कौन करेगा। निष्कर्ष यह कि आम और बाढ़ दोनों राष्ट्रीय धरोहर है - एक राष्ट्रीय फल तो दूसरा राष्ट्रीय आपदा। जय-हिंद। -श्यामल सुमन
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