क्या कभी पप्पू पास होगा...?
02-Feb-2016 08:04 AM 1234820

गांधी-नेहरू परिवार हो या फिर कांग्रेस, उसकी स्थिति मेरे बाबा जी के चश्मे जैसी है। उसके चार बार शीशे बदले और पांच बार फ्रेम, फिर भी वे उसे 25 साल पुराना बताते थे। खैर, आप भले ही न मानें; पर श्रीवास्तव जी इसे ही असली कांग्रेस मानते हैं और यदि उनके सामने कोई उसे बूढ़ी कांग्रेस कह दे, तो वे नाराज हो जाते हैं।
किसी ने कहा है कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी।ÓÓ यहां भी बात राहुल बाबा को विदेश से प्राप्त ऊर्जा की हो रही थी और पहुंच गये इतिहास में। कहते हैं कि अपने इतिहास और भूगोल से सबको ताकत मिलती है। वर्मा जी बुद्धिजीवी किस्म के आदमी हैं। बाल की खाल निकालना कोई उनसे सीखे। उन्होंने इस विषय पर पूरा भाषण ही दे डाला। उसके कुछ अंश आप भी सुनें। प्राणी हो प्राकृतिक तत्व, वह सदा अपने मूल की ओर आकर्षित होता है। वह सुख-दुख में भी वहीं से शक्ति और सांत्वना पाता है। बच्चों को बाहर खेलते समय यदि चोट लग जाए या किसी से मारपीट हो जाए, तो वे तुरंत घर आकर मां की गोदी में बैठकर रोने लगते हैं। यद्यपि वे बाहर भी रो सकते हैं; पर उन्हें पता है कि वहां कोई उन्हें घास नहीं डालेगा। घर में मां उसे पुचकारेगी, सांत्वना देगी और कुछ खिला-पिलाकर चुप करा देगी। जहां तक बड़ों की बात है, दिन भर काम-धंधे की भागदौड़ के बाद उन्हें आराम घर में आकर ही मिलता है। दुनिया में अच्छी से अच्छी जगह चले जाएं, महंगे होटलों में जाकर बढिय़ा से बढिय़ा खा-पी लें; पर जो सुख अपनी मां या पत्नी के हाथ के भोजन में मिलता है, उसका कोई मुकाबला नहीं है। गुप्ता जी बीच में टपक पड़े, किसी ने कहा भी तो है जो सुख छज्जू के चौबारे, वो न बलख न बुखारे।ÓÓ
श्रीवास्तव जी इस निरर्थक बौद्धिक चर्चा से उकता गये वर्मा जी, लम्बे भाषण की बजाय आप सीधी बात क्यों नहीं कहते ? मैं सीधी बात ही कह रहा हूं। व्यक्ति और प्रकृति की तरह ये बात राजनीतिक दलों के साथ भी सत्य है। जैसे भाजपा का मूल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। इसलिए अपनी हर समस्या के समाधान के लिए वह उधर देखती है। वामपंथी दलों के मां-बाप रूस और चीन हैं। यद्यपि अब रूस बिखर चुका है और चीन बूढ़ा हो गया है। वे दोनों अपनी बीमारी से ही परेशान हैं। इसलिए अब भारत में भी वामपंथियों के दिन खराब चल रहे हैं। लेकिन इसका राहुल जी की विदेश यात्रा से क्या नाता है? श्रीवास्तव जी, आप तो पुराने कांग्रेसी हैं। आपको पता ही होगा कि कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज ने की थी।
हां, पता है ।
और कांग्रेस की वर्तमान अध्यक्ष भी विदेशी हैं? विदेशी तो नहीं, हां विदेशी मूल की जरूर हैं; लेकिन यह मत भूलो कि अब वे हमारे-तुम्हारे से अधिक भारतीय हैं।
जो भी हो; पर क्या ये सच नहीं है कि उन्हें और उनके सपूत को शक्ति प्राप्त करने के लिए बार-बार विदेश जाना पड़ता है। मैडम जी को न जाने क्या रोग है, जिसका इलाज बाहर ही होता है। इस बारे में वे कुछ बताती भी नहीं हैं। पिछली बार राहुल बाबा दो महीने के लिए कहीं गये थे। लौटकर उन्होंने संसद और सड़क पर खूब हंगामा किया। लोगों को लगा कि मुर्दा कांग्रेस फिर जी उठी है। अब नये साल पर वे फिर विदेश गये थे। कांग्रेसियों को लगता है कि वे फिर कुछ कमाल दिखाएंगे।
तो विदेश जाने में बुरा क्या है?
बुरा तो कुछ नहीं है। मैं तो यह कह रहा हूं कि जैसे क्रिकेट एक भारतीय खेल है, जिसकी खोज इंग्लैंड में हुई। ऐसे ही जिसे आप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसÓ कहते हैं, वह एक विदेशी संस्था है, जिसकी स्थापना भारत में हुई। यद्यपि वह न तो भारतीय है और न ही राष्ट्रीय। विदेशी होने के कारण उसे विदेश से ही ताकत मिलती है। इस बात पर सबने ताली बजा दी। बस फिर क्या था, श्रीवास्तव जी आग बबूला हो गये। उन्होंने गुस्से में आकर अपनी छड़ी उठाई और दांत किटकिटाते हुए वर्मा जी की तरफ दौड़ पड़े।
-विनोद बक्सरी

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