भय बिनु होइ न प्रीति
16-Jan-2016 10:14 AM 1249045

भय बिनु होइ न प्रीति-रामचरितमानस का यह संदेश या नीति बहुचर्चित है और मान्य भी। यह उल्लेख उस प्रसंग से है, जब श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ विनयपूर्वक समुद्र तट पर बैठ गए थे इस आशा में कि वह उनकी सेना को पार जाने में सहायता करेगा। किन्तु जब विनयपूर्वक अनशन-अनुरोध का कोई प्रभाव नहीं हुआ, तब राम समझ गए कि अब अपनी शक्ति से उसमें भय उत्पन्न करना अनिवार्य है। लक्ष्मण तो पहले से ही अनुनय-विनय के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि वे श्रीराम के बाण की अमोघ शक्ति से परिचित थे। वे चाहते थे कि उनका बाण समुद्र को सुखा दे और सेना सुविधा से उस पार शत्रु के गढ़ लंका में पहुंच जाए। समुद्र तो जड़ था ही। गोस्वामी तुलसीदास ने पहले ही उसे जड़ बता दिया था-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।
ठीक ही था कि जो समुद्र तीन दिनों तक यह न समझ सका कि उसके तट पर जो बैठा है, वह कौन है और उसका बाण करोड़ों समुद्रों को सुखा सकता है- कोटि सिन्धु तोषक तव नायक-Ó तब वह जड़ नहीं तो और क्या था? तभी श्रीराम ने अपने महा-अग्निपुंज-शर का संधान किया, जिससे समुद्र के अन्दर ऐसी आग लग गई कि उसमें वास करने वाले जीव-जन्तु जलने लगे। तब समुद्र ब्राह्मण वेश में प्रकट होकर हाथ में अनेक बहुमूल्य रत्नों का उपहार ले अपनी रक्षा के लिए याचना करने लगा और कहने लगा कि वह पंच महाभूतों में एक होने के कारण जड़ है। अतएव श्रीराम ने शस्त्र उठाकर उसे उचित सीख दी है।
भय बिनु होइ न प्रीतिÓ- वाली एक और सीख रामचरितमानसÓ में सुग्रीव के प्रसंग में मिलती है, जब वह श्रीराम की सहायता से बाली-वध के बाद किधष्कधा का राज्य और अपनी पत्नी रूमा को पा जाने के बावजूद राजकाज को भूल गया था। इससे पहले ऋष्यमूक पर्वत पर श्रीराम से मिलने पर उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह सीता जी का पता लगाने में राम की पूरी सहायता करेगा। रावण ने उनका हरण कर लिया था और राम-लक्ष्मण उन्हें ढूंढते फिर रहे थे। सुग्रीव का राज्याभिषेक होने के बाद वर्षाकाल आ गया। अतएव यह तय हुआ कि श्रीराम और लक्ष्मण वर्षाकाल समाप्त होने तक प्रवर्षण गिरि पर रहेंगे और उसके तुरन्त बाद सुग्रीव अपनी वानर सेना के सहयोग से सीता जी का पता लगाने का प्रयास करेंगे। परन्तु वर्षाकाल बीत गया और सुग्रीव को अपने वचनों की भी याद नहीं रही। बहुत प्रतीक्षा के बाद एक दिन राम ने लक्ष्मण से कहा-
सुग्रीवहुं सुधि मोरि बिसारी। पावा राज, कोत पुर नारी।
जेहि सायक मारा मैं बाली। तेहि सर हतों मूढ़ कहं काली।।
अर्थात् सुग्रीव ने भी राज्य, कोष और स्त्री पाकर मुझे भुला दिया। अतएव जिस बाण से मैंने बाली को मारा था, उसी से उस मूर्ख को भी मार सकता हूं। श्रीराम के इस रोष से लक्ष्मण मन ही मन प्रसन्न हुए, क्योंकि वे दुष्टों को सजा देने में देरी के पक्ष में नहीं रहते। अतएव अपना धनुष-बाण संभालने लगे। तब श्रीराम फिर लक्ष्मण से बोले-
भय देखाइ तैं आवहू, तात सखा सुग्रीव।Ó
अर्थात् सुग्रीव को मेरा भय दिखाकर मेरे पास ले आओ। ऐसा ही हुआ। क्रोध में भरकर लक्ष्मण किधष्कधा पहुंच गए। उधर मंत्री हनुमान ने भी श्रीराम का भय दिखाकर सुग्रीव को आगाह कर दिया था। अतएव लक्ष्मण के क्रोध के पीछे बाली का वध करने वाले श्रीराम के बाण के स्मरण मात्र से उसकी विलासिता पता नहीं कहां चली गई और वह चुस्त-दुरुस्त होकर लक्ष्मण के साथ श्रीराम के पास पहुंच गया। साथ ही सभी प्रकार से उनसे क्षमा मांगते हुए सूचित किया कि उसने सीता जी की खोज के लिए चारों दिशाओं में अपने वानरों को भेजने का आदेश दिया है। रामजी प्रसन्न हो गए और उसके अपराध को क्षमा कर दिया।
सुग्रीव और समुद्र को दी गईं राम की सीखें हमेशा के लिए सार्थक नीति का संदेश बन चुकी हैं, जो व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के परिप्रेक्ष्य में समान रूप से प्रासंगिक हैं। भारत के लिए तो यह और भी अधिक है, जो विशाल और सर्वशक्तिमान राष्ट्र होने के बावजूद छोटे-छोटे देशों या शक्तियों से पीडि़त, प्रताडि़त और पूर्व में पराजित होता रहा है। आज का संदर्भ भी कुछ ऐसा दिखाई पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण है पहले के राजाओं और अब के राजनेताओं में नि:स्वार्थी देश-सेवा और सतत जागरूकता का अभाव तथा चालाक और धोखेबाज पड़ोसियों के साथ अंधविकश्वासी मित्रता उस समय तक जब तक उनका विकश्वासघात हमारे सामने नग्न रूप से नहीं आ जाता। राम और कृष्ण से लेकर चाणक्य तक इस देश में देशहित और व्यावहारिक कूटनीति कई बार बहुत आहत हुई है।
भय बिनु होइ न प्रीतिÓ की यथार्थता के आगे की एक और अधिक पेचीदी यथार्थता मानव जीवन में दिखाई पड़ती है। इसका परिचय रामायण और महाभारत में भली प्रकार मिलता है। इसके अनुसार व्यक्ति में कुमति या कुप्रवृत्तियां बढ़कर उस पर इतनी हावी हो जाती हैं कि उसके लिए भय भी बेअसर हो जाता है। वह अपने अहं, मनमानी और स्वार्थ में मृत्यु भय की भी उपेक्षा कर देता है और अंतत: मृत्यु को ही प्राप्त होता है। इसके असंख्य उदाहरण धार्मिक साहित्य और शास्त्र में हैं किन्तु दो बड़े उदाहरण रावण और दुर्योधन हैं- क्रमश: रामायण और महाभारत के खलनायक। यद्यपि ये प्रत्येक काल और देश में पाए जाते हैं। रावण की ही भांति महाभारत में मिलता हैं दुर्योधन जिसको अपने पाण्डव भाइयों से संधि करके महायुद्ध टालने के लिए माता-पिता, गुरु, अनेक ऋषि-मुनि आदि ने दबाव डाला और यहां तक स्वयं भगवान कृष्ण ने उसके पास जाकर संधि का प्रस्ताव किया किन्तु उसने साफ कह दिया कि सुई की नोक के बराबर भूमि भी वह नहीं देगा। इसके बाद हुए महाभारत में उसकी हार हुई।
-ओम

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