02-Dec-2015 08:18 AM
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बिहार चुनाव के नतीजे आए तो सबसे पहले तरुण गोगोई ने असम में भी महागठबंधन की वकालत की। फिर यूपी में महागठबंधन की बात चल पड़ी। अखिलेश यादव के बयान से इसे हवा भी मिली। मगर दूसरे नेताओं को मीडिया ने टटोला

तो एक एक कर इंकार करने लगे। यूपी और बिहार की डेमोग्राफी मिलती जुलती जरूर है, मगर क्या राजनीतिक समीकरण भी एक जैसे हैं? फिर क्या आधार बनेगा यूपी में महागठबंधन का? क्या मुस्लिम वोटों की भी भूमिका होगी? शायद बड़ी भूमिका होगी? यूपी में महागठबंधन की दरकार किसे है? और क्यों? असल में, यूपी में किसी भी पार्टी को यकीन नहीं है कि वो 2017 में सरकार बना सकती है। न सूबे में सत्ता संभाल रही समाजवादी पार्टी, न केंद्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी।
यूपी में गठबंधनों के खूब प्रयोग हुए हैं। छह छह महीने की सरकारों के भी करार और फिर बाद में करार तोडऩे के आरोप-प्रत्यारोप के दौर भी चले हैं। समाजवादी पार्टी महागठबंधन की सबसे बड़ी पक्षधर रही है। बिहार में जनता परिवार का सपना मुलायम सिंह की उस दूरदृष्टि का हिस्सा था जिसे उन्होंने अरसे से संजो कर रखा हुआ है। बिहार में महागठबंधन तो बना मगर मुलायम उससे बाहर हो गए। मर्जी से या मजबूरी में, ये बात अलग है। लगता है, समाजवादी पार्टी को एंटी-इनकंबेंसी-फैक्टर का डर सताने लगा है। शायद पंचायत चुनावों ने विरोध में सुलगती आग का धुआं दर्शाया है। बीएसपी ने इस धुएं को करीब से महसूस भी किया है। मायावती को सत्ता में वापसी करनी है। लेकिन मायावती चुनाव पूर्व किसी गठबंधन के खिलाफ रही हैं। कांग्रेस को भी बिहार की तरह ऐसे मजबूत पार्टनर की तलाश होगी जो अगली सरकार में उसे कोई रोल दे सके।
महागठबंधन का आधार
महागठबंधन में सबसे बड़ा पेंच ये है कि उसका आधार क्या होगा? जैसे बिहार में महागठबंधन का एक ही मकसद था - बीजेपी को किसी भी सूरत में सत्ता तक पहुंचने से रोकना। इसीलिए महागठबंधन के नेता लालू प्रसाद यादव को जहर पीने की बात करनी पड़ी और और नीतीश कुमार को चंदन और भुजंग के अलग अलग अर्थ समझाने पड़े। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भले ही बिहार जैसे महागठबंधन की जरूरत यूपी में नजर आई है, लेकिन क्या मायावती स्टेट गेस्ट हाउस कांड भूल पाएंगी? जरूरी नहीं कि एक दूसरे के जानी दुश्मन रहे लालू और नीतीश ने हाथ मिला लिया तो मुलायम और मायावती भी वैसा ही करें। दोनों मामलों में देश, काल और परिस्थिति काफी अलग है। वैसे यूपी में 1993 और 1995 में मुलायम और मायावती मिलकर सरकार चला चुके हैं। जिस तरह बिहार में लालू का माय फैक्टर काम करता है उसी तरह यूपी में मुलायम यादव और मुस्लिम वोट की राजनीति करते हैं। पिछली बार मायावती अपने दलित वोट बैंक के साथ अगड़ों को मिलाकर सोशल इंजीनियरिंग के जरिए सत्ता की सीढ़ी चढ़ पाईं, लेकिन 2012 में उनका ये फॉर्मूला भी फेल हो गया। अब मायावती सोशल इंजीनियरिंग के बिलकुल नए फॉर्मूले पर काम कर रही हैं। इस फॉर्मूले को दम नाम दिया जा रहा है जिसका मतलब दलित-मुस्लिम से है। मायावती अपने दलित वोट बैंक पर भरोसा तो कर सकती हैं, लेकिन सवाल ये है कि मायावती को मुस्लिम वोट मिलेंगे कैसे? मायावती को अपने नए एक्सपेरिमेंट के लिए मुस्लिम वोट जरूर चाहिए। मायावती ये वोट तभी पा सकती हैं जब मुसलमानों को महागठबंधन जैसा भरोसा दिलाएं। अब ये भरोसा वो अकेले दिला पाएंगी या किसी के साथ गठबंधन करके, ये उन्हें तय करना है। अकेले दम पर ये भरोसा दिलाना फिलहाल मुश्किल भी होगा। ऐसे में उन्हें मुलायम की पार्टी या कांग्रेस से गठबंधन करना होगा। अगर मायावती इस रास्ते चलती हैं तो बीजेपी के साथ उनके गठबंधन का रास्ता बंद हो जाएगा। मायावती के सामने अब बचते हैं मुलायम और कांग्रेस। चर्चा है कि कांग्रेस और बीएसपी के एक नेता के बीच इस पर गंभीर बातचीत हुई तो है लेकिन सीटों की डिमांड के चलते आगे नहीं बढ़ पा रही चुकी है। अव्वल तो मायावती चुनाव से पहले गठबंधन नहीं चाहतीं, ऊपर से वो उतनी सीटों पर लडऩा चाहती हैं जिन्हें जीत कर अकेले भी बहुमत की गुंजाइश रहे। जिस तरह मायावती मैदान में उतरने की तैयारी में हैं, मुस्लिम वोटों के तीन-तीन दावेदार नजर आने लगे हैं। मुलायम से पहले से कांग्रेस मुस्लिम वोटों के लिए सब कुछ करने को तैयार पाई गई है। अब इसमें मायावती भी कूदने जा रही हैं।
-लखनऊ से मधु आलोक निगम