ऐसे सेंसर बोर्ड की हमें जरूरत है क्या?
02-Dec-2015 06:52 AM 1234817

जिस सेंसेर बोर्ड ने मर्डर से लेकर रागिनी एमएमएस और ग्रैंड मस्ती जैसी डबल मीनिंग और बोल्ड सींस वाली फिल्मों तक को हरी झंडी दिखाई। वही अब फिल्म वन्स अपॉन ए टाइम इन बिहार को लेकर दोहरा रवैया क्यों अपना रहा है?
सेंसर बोर्ड के ज्ञान चक्षु एक बार फिर जाग गए है और खामियाजा अभिनेत्री से निर्माता बनी नीतू चंद्रा को उठाना पड़ रहा है। बोर्ड ने उनकी फिल्म वन्स अपॉन ए टाइम इन बिहार से साला शब्द निकालने को कहा है। है न कमाल की बात! आप भी सिर खुझाते रहिए कि अब फिल्मों में साला भी सुनने को नहीं मिलेगा क्या? क्या सेंसर ने ठान ली है कि हम और आप केवल सात्विक फिल्में ही देखेंगे?  मोटे तौर पर सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी को समझें तो यह उसका काम है कि वह आने वाली फिल्मों को उनके रिलीज होने से पहले देखे। सुझाव दे कि अमुक फिल्म प्रदर्शित करने लायक हैं या नहीं। फिल्म की भाषा, दृश्य आदि ऐसे तो नहीं हैं जिससे समाज के किसी खास वर्ग को ठेस पहुंचती हो। अश्लीलता तो नहीं है, वह बच्चों के लिए या बड़ो के लिए या सभी उम्र के लोगों के लिए है, यह तमाम शर्ते जुड़ी होती हैं। शर्तें हैं तो क्या कुछ मापदंड भी होंगे। और अगर नहीं हैं तो क्यों नहीं है? यह सभी सवाल इसलिए कि सेंसर बोर्ड ने समय-समय पर जिस तरह की फिल्मों को हरी झंडी दिखाई है और जिन फिल्मों या उनके दृश्यों पर आपत्ति जताई है, उन सब में इतना विरोधाभास है कि आप हंसे बिना नहीं रह सकते। नीतू चंद्रा ने भी जवाब दिया है कि कमीने, रासकल्स के नाम से तो हमारे यहां फिल्में ही मौजूद हैं। साला मैं तो साहब बन गया...ये मशहूर गाना सेंसर बोर्ड कैसे भूल गया? और फिर गालियों की भरमार, डबल मीनिंग वाले गानों, संवादों से कोई परहेज नहीं लेकिन साला शब्द पर सेंसर बोर्ड के कान अचानक क्यों खड़े हो गए हैं। बात कोई 25-30 साल पहले की होती तो हम समझने की कोशिश भी करते लेकिन अब तो हमारे सामने गालियों की शब्दावली वाली ही कई फिल्में हैं। पॉलिटीकल थ्रिलर और डार्क सिनेमा के नाम पर गैंग्स ऑफ वासेपुर से लेकर पान सिहं तोमर, अपहरण जैसे कई फिल्में उदाहरण के तौर पर मिल जाएंगी। और फिर डेल्ही बेली को भी आप कैसे भूल सकते हैं। वैसे,एक आरोप यह भी है कि वन्स अपॉन ए टाइम इन बिहार में ऐसे संवाद हैं जो राजनेताओं और सरकारी महकमों की गलत तस्वीर पेश कर रहे हैं।

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