02-Nov-2015 09:38 AM
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निजी क्षेत्र के उद्योगों को वन भूमि आवंटित करने वाले सरकार के हालिया फैसले ने एक बार फिर आदिवासियों को चिंतित किया है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा लिए गए फैसले से निजी कंपनियों को पेड़ों की कटाई की आजादी

होगी। यह विधेयक संसद के आगामी सत्र में पेश किया जा सकता है, लेकिन साफ है कि इस दिशा में किसी भी तरह का संशोधन वन अधिकार अधिनियम को कमजोर करेगा। ऐसे में देश की आर्थिक व सामाजिक संरचना से कोसों दूर जनजातीय लोगों का विस्थापन भी हो सकता है।
वन आदिवासियों के जीवन यापन का एक मात्र केंद्र है। वर्ष 2006 में अनुसूचित जनजाति और वनों में रहने वाले अन्य परंपरागत निवासियों से जुड़ा कानून संसद द्वारा पारित किया गया। इस वनाधिकार कानून के लागू होने के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों में निवास करने वाले परिवारों को मूलभूत आजीविका का अधिकार प्राप्त हुआ। इस नए कानून के बाद उन्हें मालिकाना हक जैसे अधिकार प्राप्त करने का अवसर मिलने लगा, जिसके तहत अब तक लगभग 25 लाख हेक्टेयर ऐसी जमीनों का मालिकाना हक आवंटित किया जा चुका है। इससे सरकार के प्रति जनजातीय समूहों में विश्वास का संचार तो हुआ, पर यह कानून भी आदिवासियों के अधिकारों को पूरी तरह संरक्षित कर पाने में कामयाब नहीं है। आदिवासियों को भूमि का मालिकाना हक होने के बावजूद उन्हें जमीन बेचने का अधिकार नहीं है। मौजूदा व्यावसायिक वानिकी की परवाह में जंगलों को कॉरपोरेट के हाथों सौंपने जैसी योजना निश्चित रूप से आदिवासियों के हितों के खिलाफ होगी। इस स्थिति में विस्थापन, पुर्नस्थापन, बेरोजगारी समेत कई तरह की चुनौतियां सामने आ सकती हैं। पूर्व में परियोजना निर्माण के नाम पर आदिवासियों के विस्थापन का इतिहास भी अच्छा नहीं रहा है। ऐसे में उनके विलुप्त होने की भी आशंका बनती है। कुछ महीने पहले सरकार ने घोषणा की थी कि वह वनाधिकार कानून, 2006 के तहत भूमि अधिग्रहण से पहले आदिवासियों की राय लेने जैसी धारा को समाप्त करेगी, जबकि कानून यह है कि आदिवासियों की भूमि पर किसी परियोजना को शुरू करने से पहले ग्राम सभा से अनुमति लेना अनिवार्य है। कानून मंत्रालय द्वारा इस बाबत पर्यावरण मंत्रालय के विनियमों में भी संशोधन किया गया है। देश की जनसंख्या में लगभग 24 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले आदिवासी व दलित समाज आर्थिक व समाजिक, दोनों ही तरह से हाशिये पर हैं। इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने की कोशिश में कानून और प्रावधान, दोनों विद्यमान हैं। लेकिन उनके लिए बनाई गई नीतियां उनका दूरगामी कल्याण सुनिश्चित नहीं करतीं, बल्कि उन्हें सिर्फ जीवित रखने मात्र पर केंद्रित होती हैं। आदिवासियों के लिए आवंटित कल्याणकारी योजनाओं पर होने वाले कुल खर्च का 77 फीसदी हिस्सा उनकी जीविका पर खर्च किया जाता है, जबकि विकास पर महज 23 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है। आज केंद्र सरकार स्मार्ट सिटी बनाने की होड़ में है। संभव है कि ऐसी परियोजनाओं के सफल होते-होते बड़ी संख्या में वन कुर्बान हो जाएं। देश का संपूर्ण विकास सुनिश्चित करने के लिए हर सामाजिक वर्ग का उत्थान जरूरी है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार तंत्र को दुरुस्त कर इस वर्ग का कल्याण सुनिश्चित करे।
मप्र में वन विभाग ने दी फलदार पेड़ों पर भी दी कुल्हाड़ी चलाने की छूट
उधर, मप्र में पौराणिक आस्था से जुड़े बरगद, पीपल जैसे वृक्ष तथा आम, अमरूद जैसे फलदार पेड़ भी अब वैधानिक रूप से काटे और बेचे जा सकेंगे। वन विभाग ने वानिकी को बढ़ावा देने के निर्णय के तहत 53 प्रजातियों के पेड़ों को परिवहन अनुज्ञा (टीपी) से मुक्त कर दिया है। अब लोग अपने बगीचे, आंगन, प्लॉट आदि से ये पेड़ कटवा सकेंगे। विभाग ने इन पेड़ों को टीपी से मुक्त करने का मसौदा विधि विभाग को भेजा था, मंजूरी के बाद अधिसूचना जारी की गई है। आलम यह था कि जुलाई में इस प्रस्ताव का मसौदा खंडवा, इंदौर, बैतूल, देवास आदि जिलों में पहुंच गया था और अधांधुध कटाई शुरू हो गई थी, वन विभाग के पीसीसीएफ से लेकर सचिव तक कहते रहे कि विधि विभाग को प्रस्ताव भेजने के साथ ही फील्ड अफसरों से भी सुझाव के लिए यह मसौदा भेजा गया था, जिसे आदेश समझा गया। ताजे फैसले से उन अफसरों को बचाया जा सकेगा जिनके इलाकों में अधिसूचना से पहले ही कटाई शुरू हो गई थी। पीसीसीएफ मप्र नरेंद्र कुमार हमने पेड़ काटने की अनुमति नहीं दी है। वन विभाग ऐसे मामलों में लोगों को असुविधा से बचाने के लिए इन प्रजातियों को टीपी से मुक्त कर रहा है।
प्रदेश में आम जनता की सहूलियतों को देखते हुए कुछ निर्णय लिए गए हैं, लेकिन उसके लिए कड़े प्रावधान है। अगर कोई इसका दुरुपयोग करता है तो इसके लिए कड़े दंड दिए जाएंगे।
-गौरीशंकर शेजवार, वनमंत्री
-ज्योत्सना अनूप यादव