17-Aug-2015 08:05 AM
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चाणक्य की भूमि बिहार...जहां आज तक किसी ने नहीं मानी हार। भले ही अखाड़े में वे अपने प्रतिद्वंदी से रोज पछाड़ खाते हों, लेकिन उनकी हिम्मत देखिए कि वे हार नहीं मानते। जब धूल-मिट्टी के

अखाड़े की जगह सत्ता का मैदान मारने के लिए जोर अजमाईश हो तो...फिर कौन हार मानता है। शह-मात के खेल में एक-दूसरे को फेल करने के लिए हमारे माननीय एक बार फिर लंगोट (अब तो कोई पहनता नहीं है, फिर भी)कस कर मैदान में उतर गए हैं। भले ही अभी चुनावी बिगूल नहीं बजा है, लेकिन आजकल बिहार में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए मारामारी चली है। जिसे घर तक में कोई नहीं पूछता वह भी मुख्यमंत्री के पद के लिए दावेदारी सीना ठोंक कर ठोंक रहा है, भले बंदे के पास सीना हो या न! मित्रों! दावेदारी के इस दौर में मैं भी देश की सेवा का इच्छुक हूं। जिसने एक बार कुर्सी पर फुर्ती से बैठ लोकप्रिय नेता हो इस देश की सेवा कर ली उसकी आने वाली कई पुश्तों को तिनका तक इधर से उधर करने की कतई जरूरत नहीं। वे पेट में अफारा आया होने के बाद भी अपने पुरखों द्वारा की गई देश सेवा का संचित फल मजे से खाते रहते हैं। अपने पुरखों की याद में मधुर गीत सोए-सोए भी गुनगुनाते रहते हैं।
और नहीं तो शोशा ही सही! शोशा छोडऩे में क्या जाता है? वैसे भी अपने देश की राजनीति में राजनीति कम, शोशेबाजी ही अधिक है। जिसे देखो वही हर दूसरे-चौथे दिन कोई न कोई शोशा छोड़ देश-भक्त हुआ जा रहा है। और जनता है कि उसमें कुछ उठाने का दम अब हो या न पर वह उनके छोड़े शोशों को हाथों-हाथ उठा रही है। अपुन का बिहार तो ऐसे शोशेबाजों का प्रदेश है, जहां राई को पहाड़ और पहाड़ को राई बनाते देर नहीं लगती। फिर क्या...? इनदिनों तो हर तरफ सबकी अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग सुनाई देता है! सब अपनी-अपनी जेब में लिए घूम रहे हैं आग! कि जहां जैसे दाव लगे, दे मारी दियासलाई! बाद में कह देंगे ये आग हमारे पड़ोसी ने लगाई! तो वे मौकापरस्त सोए-सोए भी कह रहे हैं कि प्रदेश को सबसे बड़ा खतरा है तो केवल इनसे है...उनसे, क्योंकि वे हीं जनता के हितैषी हैं। अब जरा सोचिए, मैं ही क्यों? असल में हे मेरे प्रदेशवासियों! भूख से शह मात लेता अब मैं वह बंदा हूं जो हफ्ते में चार दिन उपवास रखता है। अगर गलती से हफ्ते में तीन ही दिन उपवास रखूं तो अगले दिन पेट वो खराब हो जाता है कि वो खराब हो जाता है कि... तो मित्रो! मेरी सबसे बड़ी विषेशता यह है कि मैं न तो सांप्रदायिक हूं और न धर्म निरपेक्ष! कहूं तो दोनों का मिला जुला संस्करण हूं !
अगर मैं जरूरत से ज्यादा जरा सा भी कुछ खा लूं तो मैंने कुछ खाया है, इस बात का पता घर में तो एकदम लग ही जाता है, पड़ोसियों तक को भी लग जाता है। देश की माटी की कसम खाकर कहता हूं कि मेरी भूख संपूर्ण स्वदेशी है। जीने के लिए तो छोडि़ए, अब तो कुछ भी खाने को मन ही नहीं करता! वह इसलिए नहीं कि अब देश में कुछ खाने को बचा ही नहीं है। खाने के माहिर तो कहीं भी खाने के बहाने ढूंढ़ ही लेते हैं साहब! असल में जरूरत से अधिक खाना ही इस देश की सभी बीमारियों की जड़ है। अगर बंदा जरूरत के हिसाब से खाए तो यहां राम राज आ जाए! इसलिए इस देश को किसी और चीज की जरूरत हो या न पर मेरे जैसे नेता की सख्त जरूरत है। अगर अपने देश का नेता जरूरत के जितना ही खाए तो न जाने कितने पेटों पर से भूख का साम्राज्य उखड़ जाए! मैं उन देश भक्तों की तरह नहीं जिनके पेट समुद्र की तरह हैं। सालों साल हो गए खाते-खाते पर पेट इंच भर नहीं बढ़े। और पाचन शक्ति वो कि आगे जो कुछ भी आए एकदम पचा जाएं।
मेरा कोई स्विस बैक में तो छोडि़ए, अपने मुहल्ले के बैंक तक में कोई खाता नहीं! क्या करना खाता खुलवाकर? आटे दाल से कुछ बचे तो बैंक खाते मे जाएं! मेरे सारे रिश्तेदार अपने में मस्त हैं। उनके लिए तो चार कोस बस्ती चार कोस उजाड़! उनको कुछ देना गधे को लून देने के बराबर है। उन्हें हाट में ताश खेलने से फुर्सत मिले तो कुछ करें!
इसलिए, मुझको लाओ ,बिहार बचाओ!
-विनोद बक्सरी