05-May-2015 03:33 PM
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एक अंग्रेजी न्यूज चैनल ने तेलंगाना में चल रहे मासूम बच्चियों के व्यापार का पर्दाफाश किया है। बताया है कि किस तरह कुछ हजार रुपए खर्च करके बालिका शिशु खरीदा जा सकता है। इस न्यूज चैनल के रिपोर्टर और राज्य के बाल आयोग के एक सदस्य ने हैदराबाद से 120 किलोमीटर दूर नालगोंडा में एक दंपत्ती से उनकी नवजात बेटी खरीदकर इस व्यापार का पर्दाफाश किया है। नालगोंडा तेलंगाना के सर्वाधिक पिछड़े और गरीब जिलों में से एक है। इन दोनों ने संतानहीन दंपत्ती के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते हुए यह सौदा किया। रिपोर्टर ने अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया कि उन्हें आधा दिन तलाश करने के बाद एक सरकारी अनाथालय से पैसे के बदले बच्चा खरीदने का प्रस्ताव आया। बाद में एक आदिवासी इलाके से भवानी नामक दो माह की शिशु को 30 हजार रुपए में देने का प्रस्ताव आया। भवानी को बेचने किसी कमली नामक महिला ने प्रस्ताव दिया था, जो अपने भाई की दो बेटियों सहित 20 के करीब मासूम बच्चियों का सौदा कर चुकी है।
इस इलाके में सरकार द्वारा संचालित शिशु गृह बालिका बिक्री केेंद्र में तब्दील हो चुका है जहां मासूम बच्चियों को 5 हजार से लेकर 50 हजार में बेचा जा रहा है। न्यूज चैनल के रिपोर्टर और उनके साथी ने जब पड़ताल की तो उन्हें बताया गया कि जिन माँओं की पहले से ही बेटियां हैं वे अपनी नवजात बेटियों को औने-पौने दाम पर बेच देती हैं। ऐसी ही एक महिला की दो नवजात बेटियां 3 से 5 हजार के बीच बेच डाली गईं, क्योंकि उस माँ की पहले से ही दो बेटियां थीं। इस पूरे पर्दाफाश को ध्यान से देखने पर पता लगता है कि आज भी हमारे समाज में बेटी एक अभिशाप बनी हुई है। बेटियों का पैदा होना समाज के एक तबके में दुर्भाग्य और लाचारी का प्रतीक बन जाता है। बेटे की चाहत कुछ इस कदर है कि जब तक बेटा पैदा न हो जाए, माँ बार-बार गर्भधारण करती है और इस दौरान बेटियां ही पैदा होती रहें, तो उनसे छुटकारा पानेे के अनेक तरीके तलाशे जाते हैं। कहीं उन्हें मार दिया जाता है, कहीं लावारिश छोड़ दिया जाता है तो कहीं तेलंगाना जैसे मामूली कीमत पर उन्हें नीलाम कर दिया जाता है। सरकार की योजनाएं और जागरूकता अभियान इन पिछड़े इलाकों में पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं।
कन्या भू्रण हत्या को रोकने के लिए सरकारें क्या कुछ नहीं कर रहीं। केंद्र से लेकर प्राय: हर राज्य सरकार जीतोड़ कोशिश में लगी है कि किसी तरह हमारे देश की बेटियों का जीवन बचाया जा सके, लेकिन तू डाल-डाल मैं पात-पात वाली स्थिति है। कोशिश यही की जाती है कि कन्या गर्भ में ही न आ पाये और यदि गर्भ में आ गई, तो सोनोग्राफी द्वारा उसका पता लगाकर उसे वहीं मार दिया जाता है। इतने पर भी यदि पैदा हो जाए, तो पैदा होने के बाद उसके जीवन का ठिकाना नहीं है। मध्यप्रदेश के ही एक जिले में किसी गांव के अंदर 6 माह के भीतर 1 भी लड़की पैदा नहीं हुई। या तो उन्हें गर्भ में ही खोजकर मार डाला गया या फिर पैदा होने के बाद उनकी हत्या कर दी गई। इस गांव का लिंगानुपात 600-700 के करीब है।
देश के अनेक जिलों में ऐसे अनेक गांव मिल जाएंगे, लेकिन तेलंगाना में बेटियों के बेचने के पीछे आर्थिक कारण भी बताया जा रहा है। सवाल यह है कि यदि आर्थिक कारण ही है, तो केवल बेटियों को क्यों बेचा जाता है? बेटों को क्यों नहीं? उस सरकारी शिशु गृह में भी सारे 10 अनाथ बच्चे बालिकाएं ही थीं, बालक एक भी नहीं। बालक को हर हाल में पालने के लिए माता-पिता तत्पर रहते हैं चाहे कितनी भी गरीबी हो, वे बालक को नहीं त्यागते लेकिन बालिकाओं का तो दुश्मन ही यह सारा समाज है। तेलंगाना के उस जिले में 48 घंटे के भीतर बच्ची को गोद लिया जा सकता है, बस पैसे जेब में होने चाहिए। कानून तो कहता है कि गोद लेने की प्रक्रिया में 90 दिन का समय लगता है, इस दौरान बहुत सी खानापूर्ति होती है लेकिन यहां इसकी जरूरत नहीं है। फर्जी कागज तैयार किए जा सकते हैं, रिकॉर्ड में हेराफेरी की जा सकती है। खर्च जितना अधिक होगा, उतनी ज्यादा आसानी होगी। तेलंगाना सरकार ने कहा है कि वह बच्चा बेचने वाले रैकेट का पर्दाफाश कर दोषियों को दंडित करेगी। लेकिन दंड से या कानूनी रूप से रोक लगाना पर्याप्त है? जब तक लोगों की मनोवृत्ति नहीं बदले तब तक इन घटनाओं को रोकना असंभव है। कानून की पहुंच भी एक सीमा तक ही है।
कन्याओं की बिक्री एक सामाजिक अपराध है। समाज खुद अपने आप को बदले, तो शायद यह बिक्री रुक भी जाए लेकिन समाज स्वयं को बदलने के लिए तैयार है?
लिव इन विवाह नहीं
पिता रक्षति कौमार्ये भर्ता रक्षति यौवने पुत्रश्च स्वापिरे भारे न स्त्री स्वतंत्रय महंती
अर्थात पिता बचपन में स्त्री की रक्षा करता है पति युवावस्था में और पुत्र बुढ़ापे में नारी का भार उठाता है। किन समाज में आज लिव इन रिलेशनशिप ने जिम्मेदारी और संरक्षण का यह भाव तिरोहित कर दिया है और स्त्री-पुरुष के संबंध केवल देह पर आकर टिक गए हैं। विवाह के बंधन में शारीरिक सुख सबसे निचले पायदान पर आता है। सबसे पहले है पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति विश्वास, दो परिवारों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता और समन्वय। पर अब देह मिलन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है क्योंकि लड़के-लड़की लिवइन रिलेशनशिप में रहते हैं। उनके रिश्ते की साक्षी न तो अग्रि होती है न यह समाज। इसलिए रिश्ता भी तभी तक निभ पाता है, जब तक शरीर की आग धधकती रहती है। एक बार यह आग ठंडी हुई तो रिश्ता खत्म हो जाता है। इसके बाद हिस्से में आती है- घुटन, निराशा और कड़वी यादें। दुख तो इस बात का है कि नए जमाने का यह चलन बन गया है। देश की तरुणाई शारीरिक सुख के लिए विवाह जैसे पवित्र बंधन को तोडऩे पर उतारू है। तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो किसी परंपरा, रवायत या संस्था का कोई विकल्प यदि प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे ज्यादा टिकाऊ, विश्वसनीय और व्यावहारिक होना चाहिए लेकिन लिव इन रिलेशनशिप न तो टिकाऊ है, न विश्वसनीय है और न ही व्यावारिक है। शरीर का सुख जहां खत्म हुआ, वहां यह टूट जाती है। टूटते ही विश्वासघात शुरू हो जाता है। व्यावहारिक तो है ही नहीं क्योंकि लिव इन से जन्में बच्चों को समाज मान्यता नहीं देता। जिस रिश्ते में इतनी कड़वाहट, टूटन और घुटन हो वह पवित्र रिश्ता तो कहला ही नहीं सकता।
यदि विवाह जैसे रहना ही है, तो फिर विवाह ही क्यों नहीं कर लेते हैं। लड़के-लड़कियों को एक-दूसरे को देखने और बात करने का अवसर रहता है, उसके बाद ही विवाह होते हैं तो साथ रहने की क्या आवश्यकता है। फिर इसकी क्या गारंटी है कि साथ रहने के बाद धोखा नहीं होगा। आजकल वैध विवाह के बाद भी कई युवतियां दहेज यातना, प्रताडऩा, क्रूरता और घरेलू हिंसा का शिकार ही नहीं हैं, बल्कि उनको जला भी दिया जाता है, मार दिया जाता है, विभिन्न कानूनों के बावजूद लोगों में भय नहीं है। ऐसे नैतिक पतन के वातावरण में लिव-इन रिलेशनशिप (साथ-साथ) में रहने वाली युवती के प्रति क्या नहीं हो सकता है? इनमें से अक्सर युवतियां धोखा ही खाती हैं, उनके प्रति होने वाले दुराचार, बलात्कार, ठगी, लूट और धोखा देने के कई उदाहरण मिलते हैं। इस विदेशी अंधानुकरण के उच्छृंखल आचरण से कई पाप पनपेंगे।
यदि लिव-इन रिलेशनशिप ने प्रथा का रूप ले लिया तो यह हमारी संस्कृति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इस आचरण से निपटने के लिए कोई कानून भी नहीं है। कई उदाहरण हैं, जिनमें साथ-साथ रहने के कारण महिलाएं गर्भवती हो जाती हैं और फिर उनको भगा दिया जाता है। वे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाती हैं। कोई उनको अपनाता नहीं, कलंक की शिकार हो जाती हैं। उनके बच्चों की पैतृकता, उत्तराधिकार और क्षतिपूर्ति की समस्या पैदा हो जाती है। भरण-पोषण और रोजगार की मोहताज हो जाती है। इस प्रथा से भविष्य में कई विकट समस्याएं पैदा होंगी। एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशन पर 29 नवंबर 2013 को अपने निर्णय में कहा कि लिव-इन रिलेशन को न तो अपराध माना जा सकता है और न पाप माना जा सकता है। किंतु इसको वैधानिक भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि कोई कानून नहीं है और न इसे नैतिक माना जा सकता है। इसके कई दुष्परिणाम हुए हैं और भविष्य में कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं इसलिए इसको प्रथा नहीं बन जाना चाहिए।
महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अपने संबंधों के प्रति अधिक संजीदा और भावनात्मक लगाव रखती हैं इसीलिए लिव इन संबंध के टूटने का प्रभाव केवल उन महिलाओं पर ही पड़ता है जो परंपरावादी सोच वाली, आर्थिक तौर पर सेटल या अपने भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं हैं, बल्कि यह उन महिलाओं को भी अपनी चपेट में ले मानसिक रूप से आहत करता है जो मॉडर्न और आत्म-निर्भर होती हैं। हालंकि कई ऐसी महिलाएं भी हैं जो अपने कॅरियर को प्राथमिकता देते हुए शादी जैसी बड़ी और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से बचना चाहती हैं, लेकिन ऐसे में उन महिलाओं की मनोदशा को नहीं नकारा जा सकता जो किसी बहकावे में आकर ऐसे झूठे रिश्तों की भेंट चढ़ जाती हैं।