03-Mar-2020 12:00 AM
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बि हार में विधानसभा चुनाव इसी साल होने हैं और यह चर्चा बिहार के सियासी हल्के में इन दिनों बड़ी तेज है कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को टक्कर देने वाला कौन है। स्थानीय मीडिया वेब पोर्टल पर इसको लेकर रिपोट्र्स छाप रही है और सोशल मीडिया पर भी इससे जुड़े तमाम पोस्ट देखे जा सकते हैं। यह चर्चा यू हीं नहीं हो रही, इसके पीछे तमाम कारण हैं। पहला तो ये कि बिहार के विपक्षी गठबंधन में मुख्यमंत्री पद के चेहरे के नाम पर बहुत रार है।
महागठबंधन की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी राजद ने पहले से अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित तो कर दिया है, मगर दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी कांग्रेस के नेता और प्रवक्ता तेजस्वी के नाम पर सहमति नहीं दे रहे हैं। वे कहते हैं कि यह बात महागठबंधन की को-ऑर्डिनेशन कमेटी की बैठक में तय होगी कि मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा। कांग्रेस की ही तरह का स्टैंड बिहार की दूसरी छोटी-बड़ी विपक्षी पार्टियों का भी है। हम पार्टी के जीतनराम मांझी कहते हैं कि 'को-ऑर्डिनेशन कमेटी की बैठक पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से नहीं हुई है। मैंने यह बात दर्जनों बार राजद के लोगों को बोली, महागठबंधन की दूसरी बैठकों में इस मुद्दे को उठाया, मगर न जाने फिर भी राजद को-ऑर्डिनेशन कमेटी की बैठक कराने में रूचि क्यों नहीं दिखा रहा है। ऐसे नहीं चल पाएगा।Ó उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी भी यही बात कहते हैं। जहां तक बात लेफ्ट पार्टियों की है तो कन्हैया कुमार उनके चेहरे हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी लेफ्ट पार्टियां महागठबंधन का हिस्सा नहीं थी।
कथित तौर पर बिहार में विपक्ष का चेहरा लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी हैं। बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी तेजस्वी ही हैं। मगर वो केवल इसलिए हैं क्योंकि वे सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं। ऐसे में सवाल है कि तेजस्वी यादव को-ऑर्डिनेशन कमेटी की बैठक कराकर ये क्यों नहीं तय करा लेते हैं कि मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा? जानकार बताते हैं तेजस्वी यादव शायद कन्हैया कुमार से डर रहे हैं। इस वक्त और भी डर रहे हैं क्योंकि कन्हैया जो यात्रा कर रहे हैं, उसकी सभाओं में भीड़ जुट रही है। यह पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भी देखा गया था जब लेफ्ट पार्टियों के नेताओं के कई बार कहने के बावजूद भी राजद ने बेगूसराय सीट से अपने उम्मीदवार तनवीर हसन को उतार दिया। उस समय भी ये चर्चा उठी थी कि तेजस्वी यादव ने ये फैसला कन्हैया कुमार से डरकर लिया है।
जहां तक बात चेहरे को लेकर कन्हैया के नाम की है, तो इस पर सहमति दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की भी लगती दिख रही है। इसकी वजह है कटिहार के कदवा विधानसभा से विधायक राज्य के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और बिहार कांग्रेस के थिंक टैंक माने जाने वाले शकील अहमद खां की कन्हैया के साथ उनकी यात्रा में मौजूदगी।
कन्हैया की मौजूदा चल रही यात्रा को कवर करते हुए ऐसा लगा मानो यात्रा का चेहरा केवल कन्हैया हैं, बाकी सभी चीजों का प्रबंधन और आयोजन शकील अहमद खां ही कराते हैं। मसलन स्थानीय प्रशासन के साथ समन्वय, यात्रा के ठहरने का प्रबंध, अधिक से अधिक मुसलमानों को जोडऩा वगैरह। कन्हैया की सभाओं में जो लोग जुटते हैं उनमें लेफ्ट पार्टियों के कोर वोटर्स भी शामिल होते हैं जो हमेशा हर रैली और सभा में पहुंचते हैं। लेकिन इस समय की सभाओं में एक बड़ा मुसलमान तबका आता है जो शकील अहमद खां के कारण आता है और सीएए-एनआरसी के कारण भी आता है। कांग्रेस को लगता है कि कन्हैया कुमार के साथ आने में कोई नुकसान इसलिए भी नहीं है क्योंकि जो गठबंधन बनेगा उसमें वह सबसे बड़ी पार्टी होगी। कन्हैया कुमार केवल चेहरा होंगे। ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लडऩे की कांग्रेस की कामना भी इससे पूरी हो सकती है। कांग्रेस को कन्हैया के साथ आने में सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसका जातिगत समीकरण भी नहीं बिगड़ेगा। केवल यादव वोट अलग होने का खतरा रहेगा। जो कुल वोटों का करीब 14 फीसदी है। लेकिन इसके बदले उसे लेफ्ट के कोर वोटर्स मिलेंगे। जाति के आधार पर बनी दूसरी छोटी पार्टियों का सहयोग मिलता रहेगा।
कांग्रेस को पता है कि राजद अब लालू यादव के समय वाला राजद नहीं रहा जो सभी विपक्षियों को जोडऩे के लिए धूरी का काम करते थे। और जहां तक बात राजद के कोर यादव वोटर्स का है तो वह अब पहले की तरह एकमुश्त नहीं रहा। यादवों के कई नेता हो चुके हैं जो मौजूदा राजद नेतृत्व को टक्कर भी देते हुए लगते हैं। हालांकि कांग्रेस को इससे मतलब नहीं कि राजद में क्या चल रहा है और यादवों के नेता कौन हैं, बल्कि उसका मकसद उस चेहरे को खड़ा करना है जो भाजपा-जदयू सरकार को टक्कर दे सके। तेजस्वी में उसकी तलाश पूरी होती नहीं दिख रही है इसलिए कन्हैया कुमार को वह नेता बना रही है। सीएए-एनआरसी ने कन्हैया के साथ मिलकर कांग्रेस को एक नई उम्मीद दिखाई है।
कन्हैया पर होगा कांग्रेस का दांव
कांग्रेस यह भी देख रही है कि कन्हैया के साथ उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी भी मंच शेयर कर रहे हैं। आखिर में सवाल यही रह जाता है कि कांग्रेस क्यों राजद जैसी बड़ी पार्टी को छोड़कर चुनाव में लेफ्ट के साथ जाएगी जिसका मुश्किल से बिहार में कोई वज़ूद बचा है? जवाब खुद कांग्रेस ही देती है। प्रदेश अध्यक्ष मदनमोहन झा कहते हैं, कन्हैया में क्या बुराई है? इसके पहले भी कांग्रेस को लेफ्ट का साथ मिला है। और हमारी पहली लड़ाई संघवाद से है, संविधान को बचाने के लिए है। एक बात तो जरूर है कि कन्हैया कुमार के छात्र राजनीति से मुख्य धारा की राजनीति में आने के साथ ही लेफ्ट की गतिविधियां बिहार में बढ़ गई हैं। कन्हैया के साथ आने से कांग्रेस के साथ न केवल लेफ्ट आएगा बल्कि हम, रालोसपा और वीआईपी जैसी छोटी पार्टियों का भी साथ मिलेगा। क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद से जिस तरह राजद का गठबंधन बनाने को लेकर रवैया है, उससे वे निराश दिखते हैं। राजद के नेता मानते हैं कि ऐसी परिस्थिति में वो जरूरत पडऩे पर अकेले भी चुनाव लडऩे को तैयार हैं, लेकिन कन्हैया कुमार का समर्थन नहीं करेंगे।
- विनोद बक्सरी