माननीय गंभीर नहीं!
08-Jan-2022 12:00 AM 609

 

संसद के शीतकालीन सत्र को लेकर सियासी चर्चाएं हो रही हैं कि आखिर सवाल पूछने वाले सांसद और जवाब देने वाले मंत्री क्यों गंभीर नहीं दिखे, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के सांसदों को सदन में हाजिर रहने की नसीहत दी थी, लेकिन इसके उलट खुद प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा सांसद संसद में कम और चुनावी रण में ज्यादा दिखाई दिए। संसद के कैलेंडर को लेकर भी सियासी चर्चाएं शुरू हुई।

संसद का शीतकालीन सत्र तय समय से एक दिन पहले ही खत्म कर दिया गया। मानसून सत्र के बाद शीतकालीन सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ गया। खास बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उपदेश भी काम नहीं आया। शीतकालीन सत्र के दौरान संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने सांसदों को सदन में उपस्थित रहने की हिदायत दी थी, लेकिन हालात ढाक के तीन पात रहे। ऊपर से मजे की बात इस बार सदन में जो हुई उसे जानने के बाद कोई भी अपने दांतों तले अंगुलियां दबा ले। भाजपा सांसदों को उपदेश देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद ही पूरे शीतकालीन सत्र के दौरान कार्यवाही का हिस्सा नहीं रहे। अधिकांश समय प्रधानमंत्री मोदी उप्र और उत्तराखंड में भाजपा के चुनाव प्रचार में बिजी रहे।

सबसे बड़ा मजाक तो सदन का तब बना जब प्रश्नकाल में सवाल पूछने वाले खुद 14 सांसद सदन में मौजूद नहीं थे। यहां तक की एक बार तो हद ही हो गई जब मुख्य सचेतक और सरकार के मंत्री सदन में मौजूद नहीं थे। सियासी जानकारों का कहना है कि उपदेश और आचरण में समानता होनी जरूरी है। साथ ही चुनावों को देखते हुए संसद का कैलेंडर जारी करने की भी चर्चा जोरों पर है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शीतकालीन सत्र के दौरान संसदीय दल की बैठक में सांसदों को जोरदार नसीहत दी थी। आपको यह भी बता दें कि पिछले 7 साल से प्रधानमंत्री मोदी अपनी पार्टी के सांसदों को उपदेश दे रहे हैं कि संसद की कार्यवाही के दौरान उनको मौजूद रहना चाहिए। इसके बावजूद उनके सांसद नदारद रहते हैं तो इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री खुद संसद की कार्यवाही में हिस्सा नहीं लेते हैं। संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान कांग्रेस के सांसदों ने इस ओर सदन का ध्यान भी दिलाया।

कांग्रेस के सांसदों की मानें तो शीतकालीन सत्र के तीन हफ्ते में प्रधानमंत्री सत्र के पहले दिन यानी 29 नवंबर को सत्र की कार्यवाही में शामिल हुए थे। उसके बाद से एक भी दिन सदन की कार्यवाही में शामिल नहीं हुए। संसद के सत्र के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने उप्र में कई जनसभाएं कीं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन किया तो गंगा एक्सप्रेस-वे का शिलान्यास भी किया। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तराखंड और गोवा में भी चुनावी जनसभा की। यानी प्रधानमंत्री मोदी चुनावी राज्यों का दौरा करने में ही व्यस्त रहे। वहीं दूसरी तरफ जब प्रधानमंत्री मोदी ही सदन से गायब रहे तो उनके साथ ही उनकी पार्टी के सांसद भी सदन से नदारद रहे। प्रश्न पूछकर भी भाजपा सांसद सदन से गैरहाजिर रहे तो कई बार मोदी सरकार के मंत्रियों ने भी सदन में मौजूद रहने की जरूरत नहीं समझी। आपको ध्यान दिला दें कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस सत्र के दौरान पार्टी की संसदीय दल की बैठक में सांसदों को चेतावनी भी दी कि, 'वे खुद को बदलें नहीं तो बदल दिए जाएंगेÓ तब भी सांसदों ने इस पर ध्यान नहीं दिया है।

संसद की गरिमा को लेकर 'माननीयÓ कितने गंभीर हैं इसकी बानगी यह है कि संसद के इस सत्र में जिस दिन कोरोना पर चर्चा होनी थी उस दिन चर्चा शुरू कराने के लिए कोरम पूरा नहीं हो रहा था। बाद में कोरम पूरा हुआ तो चर्चा शुरू हुई। इसी तरह आखिरी हफ्ते के पहले दिन सवाल पूछकर 14 सांसद नदारद थे। इस दिन सदन में 20 तारांकित प्रश्न थे और सबका मौखिक जवाब दिया जाना था लेकिन पूरक प्रश्न पूछने के लिए जिन सांसदों ने अपने नाम दिए थे उनमें से 14 सांसद गायब थे। बड़े मजे की बात यह है कि इनमें से 9 सांसद भाजपा के थे। इससे भी मजे की बात यह है कि लोकसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक राकेश सिंह भी इनमें से एक थे। मतलब जिनकी जिम्मेदारी सदन में सांसदों की मौजूदगी सुनिश्चित करने की थी वे खुद मौजूद नहीं थे। हालांकि तुरंत ही वे भागकर पहुंचे लेकिन तब तक उनका सवाल निकल गया था और स्पीकर ने उनको मौका नहीं दिया। इसी सत्र में यह भी हुआ कि राज्यसभा में कार्यवाही के दौरान कोई भी मंत्री मौजूद नहीं था, जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए, ये सदन का अपमान माना जाता है।

इन सबके साथ ही सियासी गलियारों में एक रोचक चर्चा यह है कि चुनावों को देखते हुए संसद का कैलेंडर तय किया जाना चाहिए। क्योंकि पार्टियों (खासकर भाजपा) के द्वारा चुनाव प्रचार में सांसदों की ड्यूटी लगा दी जाती है, तो वो संसद में कैसे पहुंचेंगे? ध्यान रहे संसद के पिछले सत्र में भी इसी तरह हुआ था। बजट सत्र के दूसरे चरण के दौरान पांच राज्यों- पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी में चुनाव चल रहे थे और प्रधानमंत्री सहित सत्तापक्ष और विपक्ष के तमाम सांसद, नेता इन चुनावों में अपने को झोंके हुए थे। इसलिए सभी सांसदों ने मिलकर संसद सत्र जल्दी खत्म करने का आग्रह किया, जिसकी वजह से सत्र दो हफ्ते पहले खत्म कर दिया गया था।

आपको बता दें, संसद का बजट सत्र 29 जनवरी को शुरू हुआ था और 8 अप्रैल तक चलना था लेकिन पार्टियों के आग्रह पर इसे दो हफ्ते पहले 25 मार्च को ही खत्म कर दिया गया। अब शीतकालीन सत्र में आने वाले उप्र सहित 5 राज्यों के चुनावों में सांसदों की प्रचार में ड्यूटी लगी हुई है। सियासी जानकारों का कहना है कि इसलिए अब समय आ गया है कि राज्यों में होने वाले चुनावों के हिसाब से सत्र का कैलेंडर बने ताकि सांसद प्रचार करने का ज्यादा जरूरी काम कर सकें।

भ्रष्टाचार हमारे समाज की ऐसी ही बीमारी है। पिछले 7 साल से इसका इलाज शुरू हुआ है। समय तो लग रहा है। रोगियों का कष्ट भी बढ़ रहा है। यह इसलिए हो पा रहा है कि गंगोत्री पारदर्शी है। समस्या उसके नीचे की है। भ्रष्टाचार रूपी कैंसर की कोशिकाएं पूरी ताकत से लड़ रही हैं। केंद्र की मोदी सरकार इस बीमारी से लड़ने के लिए समय-समय पर नई-नई दवाओं का इस्तेमाल कर रही है। ऐसे वातावरण में कई प्रश्न हैं, जिनके उत्तर की तलाश है। देश के एक वर्ग को ईमानदारी से इतना परहेज क्यों हैं या इसे यूं कहें कि भ्रष्टाचार से इतना प्रेम क्यों है? नोटबंदी, जीएसटी, बेनामी संपत्ति कानून जैसे भ्रष्टाचार रोकने के तमाम उपायों का विरोध हो रहा है। इस कड़ी में अब आधार कार्ड को मतदाता पहचान पत्र से जोड़ने का मुद्दा जुड़ गया है। भ्रष्टाचार के मामलों की जांच-पड़ताल की बात शुरू होते ही विपक्षी दलों को परेशानी क्यों होती है? खासतौर से कांग्रेस को।

चुनाव सुधार एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। बोगस वोटर और बोगस वोटिंग भारतीय चुनाव प्रक्रिया की बहुत पुरानी समस्या है। साल 2018 में चुनाव आयोग ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। इसमें कांग्रेस समेत सभी राष्ट्रीय दल और करीब 34 क्षेत्रीय दलों के नेताओं की एक राय से मांग थी कि मतदाता सूची को आधार से जोड़ दिया जाए। इससे बोगस वोटर की समस्या का समाधान हो जाएगा। उसके बाद आधार को पैन कार्ड से जोड़ने के सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली याचिका पर 2019 में अदालत का फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल सरकार के इस फैसले को सही ठहराया, बल्कि कहा कि भविष्य में सरकार को मतदाता सूची को आधार से जोड़ने पर विचार करना चाहिए। अब ऐसा हो रहा है तो विपक्ष को ऐतराज है।

दरअसल विपक्ष को हर उस काम से ऐतराज है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार करती है। उसे उस काम के गुण-दोष से कोई फर्क नहीं पड़ता। पिछले 7 साल से विरोधी पक्ष का अर्थ हो गया है, जो आंख बंद करके सतत् विरोध करे। संसद में विधेयक पेश हुआ तो उस पर चर्चा के लिए विपक्षी दल तैयार नहीं। बिना चर्चा के पास हो जाए तो यह सत्तारूढ़ दल की तानाशाही है। इस विधेयक पर संसद की विधि एवं न्याय मंत्रालय की स्थायी समिति विचार कर चुकी है। वहां समस्या नहीं थी। पास हो गया तो समस्या है। पनामा पेपर्स में जब बालीवुड और उद्योगपतियों के नाम आए तो आरोप लगा कि सरकार जांच क्यों नहीं करवा रही? जरूर मिलीभगत है। जांच शुरू हुई तो कपड़े फाड़ रहे हैं कि यह तो राजनीतिक विद्वेष के कारण हो रहा है।

लोकसभा की सीटें बढ़ाने की सियासी चर्चाएं

देश की संसद की नई इमारत बन रही है, जिसमें पहले से ज्यादा सांसदों के बैठने की जगह है, सिर्फ इस आधार पर सियासी चर्चाओं ने जन्म ले लिया है कि क्या लोकसभा के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी जाएगी? सूत्रों की मानें तो मोदी सरकार इसका होमवर्क कर चुकी है। आपको बता दें कि देश में लोकसभा सीटों की संख्या तय करने का आधार आबादी होगी। लेकिन सियासी जानकारों का कहना है कि ये काम इतना आसान नहीं होगा जितना समझा जा रहा है। इस प्रक्रिया से देश में क्षेत्रीय असंतुलन आना तय है। विशेष सूत्रों की मानें तो हिंदी बैल्ट यानी उत्तर के राज्यों में सांसदों की सीटें बढ़ेंगी जबकि पूर्वोत्तर और दक्षिणी राज्यों में सांसदों की सीटें बढ़ने की बजाय घट जाएंगी। वहीं बजट का आवंटन भी सांसदों की संख्या के हिसाब से होगा। मामले से जुड़े जानकारों का कहना है कि यह काम आसान नहीं होगा। वहीं कुछ लोगों का दावा है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है! सियासी जानकारों का मानना है कि मोदी सरकार अगर ये दांव चलती है तो इसकी वजह से दक्षिण भारत के कई राज्य पिछड़ जाएंगे। पिछले दिनों दक्षिण भारत के सांसदों ने इसे लेकर चिंता भी जताई थी और उन्होंने आबादी के आधार पर सीटों की संख्या बढ़ाने के प्रयास का विरोध करने का फैसला किया था।

विरोध की ओछी राजनीति

देश में विरोध की ओछी राजनीति दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। राहुल गांधी ने बड़ी कोशिश की और राफेल के मुद्दे पर चौकीदार चोर का नारा लगवाया। लोगों ने उसे एक कान से भी नहीं सुना। उन्हें सोचना चाहिए कि क्यों बोफोर्स के मुद्दे पर पूरे देश ने राजीव गांधी के बारे में वह नारा लगाया और क्यों मोदी के बारे में ऐसी बात सुनने को भी तैयार नहीं हैं? भ्रष्टाचार बुरी चीज है, नहीं होना चाहिए। ऐसी बातें अपने भाषणों में सभी नेता करते हैं, पर करते कुछ नहीं हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार की नींव पर ही अपने वैभव का महल खड़ा किया है। कई लोग तो कार्रवाई के डर से देश छोड़कर बाहर ही बस गए हैं। विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे जो लोग कानून को धता बताकर भाग गए, उन्हें वापस लाने का सारा इंतजाम हो चुका है। अब सरकारी बैंक से कर्ज लेकर प्राइवेट जेट खरीदने का समय चला गया है, क्योंकि जो खाता नहीं है, वह खाने भी नहीं देता है। यही सबसे विकट समस्या है कि कैसे इस न खाने न खिलाने वाले से छुटकारा मिले और खाने-खिलाने के पुराने दिन बहुरें।

- इन्द्र कुमार

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