कट्टरपंथ बनाम कट्टरपंथ
21-Mar-2020 12:00 AM 955

 

ईरान में हुए हालिया चुनावों में कट्टरपंथियों को बड़ी जीत मिली है। कुल 290 में से 230 सीटों पर कट्टरपंथियों की जीत हुई। सबसे बड़े सूबे तेहरान में तो सभी 30 सीटें कट्टरपंथियों ने कब्जा ली हैं, जबकि 2016 के नतीजे इसके उलट थे, यानी उस वक्त तेहरान की सभी 30 सीटें उदारवादियों ने जीती थीं। ईरान के चुनावों की खास बात ये थी कि इन चुनावों में कोई राजनीतिक दल नहीं था, लेकिन चुनाव लडऩे वाले दो भागों में बंटे हुए थे। एक तरफ कट्टरपंथी थे तो दूसरी तरफ उदारवादी।

राष्ट्रपति हसन रूहानी उदारवादियों की तरफ झुके मध्यमार्गी नेता हैं जो 2013 में उदारवादियों के समर्थन से ही चुनाव जीते थे। वर्ष 2017 में भी उन्हें भारी समर्थन मिला और वो लगातार दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गए। लेकिन चूंकि राष्ट्रपति हसन रूहानी ने पिछले साल ही जुलाई में परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और इसके बाद से ही उदारवादी और कट्टरपंथी दोनों कैंपों के बीच संघर्ष बढ़ गया था। कट्टरपंथी, राष्ट्रपति रूहानी की विदेश नीति और ईरान में राजनीतिक सुधारों का विरोध कर रहे थे और उन्हें ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खामनेई का समर्थन मिल रहा था। फिर इसी साल अमेरिकी हवाई हमले में ईरान की कुर्द फोर्स के प्रमुख जनरल कासिम सुलेमानी की मौत ने भी देश में कट्टरपंथी ताकतों को मजबूत होने का मौका भी दे दिया और बहाना भी। इन सब हालात में हुए चुनावों में उदारवादियों का हश्र यह हुआ है कि वो महज 17 सीटों पर सिमटकर रह गए हैं, जबकि पिछली संसद में उनकी गिनती 120 की थी। तो अब ईरान की नई संसद का चेहरा पिछली संसद से पूरी तरह बदला-बदला होगा। निवर्तमान संसद के 20 प्रतिशत से भी कम सांसद नई संसद में दिखाई देंगे। जब कट्टरपंथियों को इतनी बड़ी जीत मिली है तो ईरान की राजनीति और उसकी कूटनीति में कट्टरपंथियों का दबदबा दिखाई देना स्वाभाविक है। यानी अब ईरान पूरी तरह कट्टरपंथियों के नियंत्रण में है। इससे राष्ट्रपति रूहानी की मुश्किलें बढऩी भी तय हैं और भविष्य में ईरान में बड़े बदलाव भी देखने को मिलेंगे। आखिर ईरान की राजनीति में इतना बड़ा बदलाव क्यों हुआ? क्या ईरान के लोगों ने उदारवादियों को नकार दिया है? हालांकि चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले बिल्कुल नहीं हैं, लेकिन फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ईरान के लोगों ने उदारवादियों को ठुकरा दिया है।

दरअसल आयतुल्ला खामनेई को सीधे रिपोर्ट करने वाली 12 सदस्यों की गार्डियन काउंसिल ने जिस तरह उदारवादी खेमों के सात हजार से ज्यादा उम्मीदवारों की दावेदारी खारिज कर दी थी उसके बाद से ही माना जा रहा था कि चुनाव तो कट्टरपंथी ही जीतेंगे। कुल 15 हजार लोगों ने चुनाव लडऩे के लिए आवेदन दिया था। इनमें से 7,296 लोगों को अयोग्य करार दिया गया, तो गार्डियन काउंसिल के इस कदम से 31 प्रांतों की 290 सीटों के चुनाव में ज्यादातर सीटों पर कट्टरपंथी नेताओं के मुकाबले में कट्टरपंथी नेता ही थे। वैसे तो ईरान की कट्टरपंथी मजहबी संस्था गार्डियन काउंसिल हमेशा से ही नेताओं पर इसी तरह लगाम कसे रहती है और देश की ‘मजहबी लाइन’ से अलग राय रखने वाले नेताओं को आगे नहीं बढऩे दिया जाता है। लेकिन इस बार खास बात यह रही कि गार्डियन काउंसिल ने ऐसे लोगों को भी संसदीय चुनावों में उतरने नहीं दिया जो पिछले चुनावों में काउंसिल की ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघकर चुनाव लड़े भी थे और जीते भी थे। लगभग 80 सांसदों को चुनाव लडऩे ही नहीं दिया गया। इसके चलते उदारवादी धड़ों ने चुनावों में कोई दिलचस्पी ही नहीं ली। इतना ही नहीं, 31 में से 22 प्रांतों में उदारवादियों ने किसी भी उम्मीदवार का समर्थन तक नहीं किया।

उदारवादी नेताओं को चुनावों से दूर रखने के फैसले ने ईरान के निराशा में घिरे लोगों को और नाउम्मीद कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर लोग चुनावों में वोट देने के लिए घरों से निकले ही नहीं। 41 साल के इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान के इतिहास में इस बार सबसे कम यानी 42.57 फीसदी मतदान हुआ। तेहरान में तो सबसे कम 26.2 फीसदी मतदान हुआ, जबकि ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खामनेई ने लोगों से कहा था कि वोट देना उनका धार्मिक कर्तव्य है। लेकिन जब उनकी अपील पर भी लोग मतदान के लिए नहीं निकले तो उन्होंने कहा कि दुश्मनों के दुष्प्रचार और कोरोना वायरस के बढ़ते खतरे के कारण लोग वोटिंग के लिए नहीं निकले।

राष्ट्रपति चुनावों पर असर की आशंका

इन नतीजों का असर 2021 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों पर भी पड़ेगा। जानकारों का मानना है कि अब राष्ट्रपति रूहानी के लिए संसद से तालमेल बनाना मुश्किल हो जाएगा और राष्ट्रपति के अगले चुनाव में भी किसी कट्टरपंथी का जीतना तय है। आयतुल्ला खामनेई का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, लेकिन चुनावों ने उन्हें इतना मजबूत बना दिया है कि वो सभी अहम पदों पर अपने खास लोगों को आराम से ‘सेट’ कर सकेंगे। जल्द ही उनके उत्तराधिकारी का चयन होगा और इस दौड़ में भी खामनेई के पसंदीदा कट्टरपंथी इब्राहिम रायसी आगे चल रहे हैं। यह भी आशंका है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से पहले ईरान परमाणु समझौता भी तोड़ दे और पश्चिम के साथ उसके संबंध और खराब हो सकते हैं। कुल मिलाकर ईरान में बदलाव का दौर है और ये बदलाव शुभ संकेत नहीं देते। वैसे भी ईरान में कोरोना वायरस फैलने की जो खबरें आ रही हैं वो भी चिंता बढ़ाने वाली हैं। शायद यही कारण रहा कि ईरान के चुनावों की चर्चा मीडिया में कम हुई और यह चर्चा ज्यादा हुई कि चीन के बाद वो कोरोना से प्रभावित दूसरा बड़ा देश बन गया है।

- बिन्दु माथुर

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