घातक हो रही धार्मिक कट्टरता
16-Jun-2022 12:00 AM 763

 

गंगा-जमुनी तहजीब वाले भारत में धार्मिक कट्टरता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। इस कारण देश में आए दिन धरना-प्रदर्शन, आगजनी, पत्थरबाजी की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। हाल ही में ज्ञानवापी मामले में सोशल मीडिया पर औरंगजेब से शुरू हुई बहस जो पैगंबर मोहम्मद साहेब तक पहुंच गई, उसे देखकर लग रहा कि धार्मिक कट्टरता विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लिए घातक होती जा रही है।

धर्म और संप्रदाय की आड़ में देश के विभिन्न भागों में सांप्रदायिक तनाव की बेलगाम घटनाओं के कारण भारत इन दिनों जितना बदनाम हो रहा है, शायद ही पहले कभी हुआ होगा। दुनिया के तकरीबन हर इस्लामी देश ने भारत में हो रहे सांप्रदायिक तनाव पर चिंता जताई है। इसकी वजह है देश में बढ़ती धार्मिक कट्टरता। भाजपा प्रवक्ता नुपुर शर्मा के बयान पर भारत में इस कदर बवाल मचा कि पहले कानपुर, उसके बाद प्रयागराज, सहारनपुर, रांची, पश्चिम बंगाल, छिंदवाड़ा में ऐसी अप्रिय घटनाएं सामने आईं जो भारत की एकता-अखंडता के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। इन घटनाओं के पीछे आतंकी और विदेशी ताकतें हैं या नहीं यह तो अलग बात है, लेकिन अपनों के बीच जिस तरह खूनी खेल खेला जा रहा है, यह भारत के भविष्य के लिए खतरनाक है। हैरानी की बात यह है कि घोषणाओं के बावजूद शासन-प्रशासन सांप्रदायिक घटनाओं को रोक नहीं पा रहा है। इससे वातावरण दूषित हो रहा है।

पिछले 8 साल में भारत विश्व में एक बड़ा शक्ति केंद्र बनकर उभरा है। यह हर भारतीय के लिए गौरव की बात है, लेकिन इस दौरान कई ऐसी घटनाएं भी हुई हैं, जो देश की गंगा-जमुनी संस्कृति के खिलाफ हैं। पिछले एक माह से तो सांप्रदायिक घटनाएं अचानक बढ़ गई हैं, जो चिंता का कारण हैं। ये घटनाएं एक ऐसे समय में सामने आ रही हैं, जब हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग इतिहास की गलतियों को सुधारने के लिए अदालतों और प्रशासनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से अपनी पहल आगे बढ़ा रहा है। इसका आरंभ वाराणसी में ज्ञानवापी परिसर और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान से लगी मस्जिद के मामले में फिर से सतह पर आने से हुआ। हिंदू समाज इस्लामिक शासकों द्वारा अतीत में किए गए कदाचार को दुरुस्त करने के प्रयास में लगा है। हिंदू संगठन उन तमाम उपासना स्थलों पर दावे कर रहे हैं, जिन्हें मस्जिदों में बदल दिया गया। इन दावों को लेकर मीडिया में भी हंगामा हुआ। खासतौर से टीवी चैनलों पर अनर्गल बयानों का सिलसिला चल निकला। चैनलों पर चल रही इस जुबानी जंग को देख यही अंदाजा लगेगा कि देश में कानून का शासन तार-तार हो गया है। टीवी चैनलों पर चलने वाली इन बहसों में न केवल मर्यादा की बलि चढ़ गई, बल्कि सड़कों पर हिंसा भड़काने वाली बयानबाजी तक हुई। इस सबके बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सही समय पर समाज को चेताने का काम किया।

सत्ता और विपक्ष पंगु

देश में जिस तरह सांप्रदायिक माहौल बिगड़ा है, ऐसे समय में न तो सत्तापक्ष और न ही विपक्ष अपनी भूमिका निभा पा रहा है। आजम खान, असदुद्दीन ओवैसी और उनके जैसे तमाम चंगू-मंगू नेता और मौलाना कुछ हफ्तों से अनजान आसमानी ताकत के वश में नजर आ रहे हैं। सत्तालोलुप विपक्ष की पीठ भी लगभग 45 डिग्री झुकी देखी जा सकती है। लेकिन जनता की चुनी सरकार को भी लकवा मार जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। हर जगह सरकार के बारे में उनके अपने लोग यही कह रहे हैं। उस सरकार को जिसे इस देश की करोड़ों जनता ने भारी भरकम बहुमत देकर लगातार जितवाया है। क्या हर शुक्रवार और उसके बाद शनिवार-रविवार का दिन दिखाने के लिए नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ जैसे सूरमा चुने गए थे? अगर आप भी मुंह छिपा रहे तो भला शरद पवार और अखिलेश यादव से न्याय की उम्मीद क्या ही की जाए? एक कश्मीर पर्याप्त था, राजनीति ने दर्जनों बना दिए। हर शुक्रवार एक नया कश्मीर और वही पैटर्न। नमाज और फिर पत्थरबाजी या धार्मिक नारों वाले जुलूस। किसी जुलूस में तिरंगा लहरा देने भर से वह संविधान और कानूनी दायरे में नहीं आ जाता।

देश की जनता कह रही है कि गली मोहल्ले के छुट्टा लखैरे, पत्थरबाज देश की सड़कों पर अराजकता का नंगा नाच करते घूम रहे हैं। हर तरफ आम शहरियों को डराया और धमकाया जा रहा है। हर पल देश के सब्र का इम्तिहान लिया जा रहा है। एक-दो दिन तो झेला जा सकता है, मगर 24 घंटे और 30 दिन की नंगई, जिद और फर्जी गुरूर का प्रदर्शन बर्दाश्त नहीं होता। एक कश्मीर में यह सब देखने को मिलता था, अब तो समूचे देश में ही घाटी के अंतहीन सिलसिले नजर आ रहे हैं। बिना नागा। हर शुक्रवार। सत्तालोलुप विपक्ष और सरकारों का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं जा रहा है? विपक्ष को अगर कुर्सी चाहिए तो वह सीधे कहे कि हमें कुर्सी दे दो भाई। शांति मिल जाएगी। शांति की कीमत सिर्फ कुर्सी है तो ले लो ना यार। सरकार को लग रहा हो कि उसके हाथ किसी चीज से बंधे हैं- तो वह भी मुंह खोले। आजाद भारत की महिलाओं ने अपने गहने बेंचकर सेनाओं को युद्ध लड़वाया है। आजादी की इतनी कीमत देश हंसी-हंसी चुकाने को तैयार हो जाएगा। कुछ कहिए तो? देश जानता है दुनियाभर में इस वक्त किस तरह का दबाव है।

फ्रीडम ऑफ स्पीच का मतलब दूसरों का सम्मान करना भी है

क्या सरकारें सब्र के बांध टूटने का इंतजार कर रही हैं? जो लगभग टूटने की कगार पर पहुंच ही चुका है। वह सिर्फ इतना देख रहा है कि अराजकता के खिलाफ संविधान और कानून के दायरे में कोई तो वीर बहादुर पार्टी या व्यवस्था होगी जो आगे बढ़कर आएगी और चीजों को दुरुस्त करेगी। लेकिन कुछ हफ्तों में मजहब के नाम पर जिस तरह लगातार भय का माहौल बनाया जा रहा है, लग ही नहीं रहा कि देश किसी संविधान और कानून के जोर से चलता है। यहां फ्रीडम ऑफ स्पीच है। लेकिन फिर बार-बार ऐसा क्यों लग रहा है कि संविधान को देश में एक मजहब भर की बपौती बना दिया गया है। यह फ्रीडम ऑफ स्पीच सिर्फ उसी के दायरे में है। वह जो कहे जैसा कहे, सबको मानना पड़ेगा। कानून उससे डरकर बिल में दुबका पड़ा रहे। क्या यह वही देश है जहां जड़ इस्लामिक ताकतें मनमाने तरीके से पाकिस्तान लेकर भी संतुष्ट नहीं हुई। क्या उन्हें अब दूसरे पाकिस्तान की दरकार है? लग तो ऐसा ही रहा है। हर चीज में एकसूत्री एजेंडा कि किसी भी तरह भारत को अराजकता की आग में झोंक देना है। यह देश पिछले दो साल से कोरोना महामारी और चीन से आमने-सामने का मोर्चा लेते हुए बचा कैसे है, यह समझ में नहीं आता। शायद ईश्वरीय चमत्कार ही है।

आशंका से ग्रस्त है मुसलमान?

नागरिकता कानून से फिलहाल नुपुर शर्मा के विवाद तक एक जैसा ट्रेंड देखने को मिल रहा है। क्या यह संभव है कि 20 करोड़ लोगों का रातोंरात नरसंहार कर दिया जाएगा या उन्हें भारत की जमीन से ही बेदखल कर दिया जाएगा? ऐसा कहीं होता है क्या? यह तो कई अरब देश भी नहीं कर पाए जो कभी बर्बरता के लिए मशहूर थे। भारत जिसने ना जाने कितने अल्पसंख्यक समुदायों को मानवीय शरण दी। यहां तक कि खलीफा का विद्रोह करने वाले को भी मानवीय शरण दी जिसकी कीमत राजा दाहिर सेन ने समूचा वंश और राज्य गंवाकर चुकाई। आज का जो पाकिस्तान है उसने इतिहास की सबसे बड़ी बर्बादी इसी एक मानवीय गलती की वजह से झेली थी। अरबों ने हमला सिर्फ इसी एक वजह से किया था। इसमें पैगंबर साहब का तो दोष नहीं था। दोष लालची खलीफा और कासिम का था। किसी ने कभी भारत पर विदेशी हमलों के लिए पैगंबर साहेब को दोषी नहीं ठहराया है। जहां तक कासिम की बात है धरती पर जब तक आखिरी भारतीय जिंदा रहेगा, चिल्ला-चिल्लाकर उसके कुकर्मों को बताता रहेगा।

समझ में नहीं आता कि आखिर किस विचारधारा ने भारतीय मुसलमानों के अंतर्मन में दुनियाभर की आशंकाओं और विरोधाभास को भर दिया है? यह देश आजम खान और ओवैसी की पुश्तैनी जायदाद नहीं है। धार्मिक नेता मौलाना मदनी की भी जायदाद नहीं है जो वलीउल्लाह जैसे आतंकी को फांसी की सजा से बचाने का कानूनी तिकड़म रच रहे हैं। यह देश नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की भी जायदाद नहीं है। देश इनसे पहले से था और हजारों हजार साल तक रहेगा भी। यह देश बहुसंख्यक हिंदुओं और गैर इस्लामी अल्पसंख्यकों का हिस्सा है। उनका अपना हिस्सा है। उन्होंने इसी अपने हिस्से में मुसलमानों को मनुष्य की तरह संविधान और कानून के दायरे में रहने की अनुमति दी थी, सिर पर चढ़कर कूदने की नहीं। जैसे रोज-रोज कूद रहे हैं। उन्हें भारतीय बनकर ही रहना पड़ेगा। वर्ना सरकार और विपक्ष का तो नहीं पता, लेकिन भारतीय समाज उठ खड़ा हुआ तो बहुत मुसीबत पहाड़ की तरह सिर पर गिरेगी।

मामला कहां से कहां पहुंचा दिया?

ज्ञानवापी में मामला कहां से शुरू हुआ था और कहां पहुंचा दिया गया? ज्ञानवापी मामले में किसने याचिका डाली थी। ज्ञानवापी में मस्जिद के लिए लड़ने वालों को एक बार सोचना चाहिए कि याचिका किस कमजोरी की वजह से स्वीकार हुई? सर्वे शिवलिंग का मिलना तो बाद की चीज है। बुद्धि नाम की भी कोई चीज होती है। जब ज्ञानवापी के बहाने मुगलिया सल्तनत के सबसे बर्बर और आततायी शासक औरंगजेब के कारनामों पर बात हो रही थी तो उसमें पैगंबर घुसे ही कैसे? दंगा करने पर आमादा भीड़ ने एक बार भी इन सवालों पर विचार किया क्या? भारत की छाती को हमेशा चाकू से चाक करने की कोशिश में बैठा ओवैसी संभाजी महाराज के हत्यारे आलमगीर औरंगजेब की कब्र पर फूल चढ़ाने किस मकसद से पहुंचा था? संभाजी के ही महाराष्ट्र में ऐसा करने की उसकी हिम्मत आखिर कैसे हुई? लगता है कि भारत के बड़प्पन को उसकी कमजोरी समझ लिया गया। सड़कों पर निकलने वाली उन्मादी भीड़ को पता नहीं कि दूसरों की नसों में भी पानी नहीं बल्कि गर्म और गाढ़ा खून ही बहता है।

ज्ञानवापी में सर्वे के बाद शिवलिंग मिला था। कोर्ट में लड़ाई गई तो गई कैसे? और जब कोर्ट में नहीं लड़ पाते हो, चुनाव में नहीं लड़ पाते हो- उसे सड़क पर खींच रहे हो। भला औरंगजेब के कुकर्मों को अपना कुकर्म क्यों मान बैठे हो? कोई पत्थर प्राचीन शिवलिंग है या फव्वारा- पुरातत्व के अध्येता दो सेकेंड में साफ कर देंगे। अगर अपने धर्म पर कोई बात सुनने की क्षमता नहीं है फिर किस अधिकार से दूसरों के धर्म पर सवाल उठाते हो। नुपुर शर्मा ने जो कहा वह मजहबी दायरे में सही नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने माफी मांग ली। सरकार भी बैकफुट पर है। क्या अब इसी बहाने देश को अराजकता में झोंकने की कोशिश हो रही है। वह भी उस वक्त जब दुनियाभर में वैश्विक हालात रोज तेजी से बदलते नजर आ रहे हैं। हैरानी होती है कि भारतवंशी मुसलमान औरंगजेब और पैगंबर साहेब को एक ही तराजू पर रखकर कैसे तौल सकता है?

अरब देशों की हिमाकत

नुपुर शर्मा के बयान तक तो पैगंबर साहेब का जिक्र तक नहीं हुआ था। सोशल मीडिया पर आमखास हर तरह के मुसलमान औरंगजेब को बचाने की कोशिश में नजर आ रहे हैं। हर कोई मजहब के लिए सिर कटाने और काटने की बात करता फिर रहा है। क्या दूसरे लोगों ने चूड़ियां पहन रखी हैं। भारतीय मुसलमान अरब देशों की ऐसे तारीफ कर रहा है, जैसे उनकी खैरात पर भारत पलता है। अरब का कोई देश भारत पर एहसान नहीं कर रहा। वह पाकिस्तान और अमेरिका का करता होगा। भारत को फ्री में तेल नहीं मिलता। मस्जिदों-मदरसों को जरूर अरब से चंदा मिलता होगा। एक देश के तौर पर भारत किसी भी मुल्क से जो पाता है उसकी कीमत देता है। बदले में उनका पेट भी भरता है और तन ढकने के लिए कपड़े भी देता है। भारत भी मुफ्त में नहीं देता। दुनिया का यही कारोबार है।

ताज्जुब इस बात पर है कि खुद को पढ़ा-लिखा बताने वाला नौजवान भी औरंगजेब को अपना आका कह रहे हैं। एक लिखता है- पैगंबर साहेब और औरंगजेब हमारे आका हैं। कौन सी एक वजह है कि भारत के लोग औरंगजेब को पूजे? कोई एक वजह है तो बताइए। धार्मिक विद्वेष में भारत के निरीह लोगों की हत्या करने वाला एक हत्यारा किस शर्त पर भारत का पूजनीय हो सकता है? झगड़ा किस बात का है भाई? पैगंबर को देश का हर नागरिक सम्मान देने को तैयार है। उसे शिकायत नहीं। मंदिरों, चर्चों, गुरुद्वारों के आगे इक्का-दुक्का को छोड़ किसी मुसलमान ने सिर नहीं झुकाया। लोग इसका बिल्कुल बुरा नहीं मानते। बुरा मानते तो करोड़ों लोग मजारों-दरगाहों को श्रद्धा के साथ पूजते नहीं। कंधे पर ताजिया नहीं ढोते और मस्जिदों की हिफाजत भी नहीं करते। इस्लाम के पैदा होने के हजारों साल पहले भारत और उसकी सांस्कृतिक सभ्यता का वजूद रहा है। बावजूद अपनी श्रेष्ठता को किनारे रखते हुए हर दौर में हर संस्कृति के साथ घुलने-मिलने की कोशिश भारत के लोगों ने की है।

संघ प्रमुख का संदेश

संघ प्रमुख ने यह उचित ही कहा कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना? उनके कथन में निहित यह संदेश स्पष्ट है कि अब संघ मंदिर-मस्जिद मामले में किसी नए आंदोलन का पक्षधर नहीं है। ज्ञानवापी प्रकरण पर देश के विभिन्न इलाकों में बढ़ रहे सामाजिक तनाव के संदर्भ में उनके शब्दों पर गौर करना महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि ज्ञानवापी का एक इतिहास है, जिसे हम अब नहीं बदल सकते। न तो आज के मुस्लिम और न हिंदू इस ऐतिहासिक तथ्य के लिए जिम्मेदार हैं। भारत में आक्रांताओं के साथ ही इस्लाम ने दस्तक दी और हिंदुओं का मनोबल तोड़ने के लिए मंदिरों का विध्वंस किया गया। सच है कि यह सब इतिहास का हिस्सा है, लेकिन इस मुद्दे को तूल देकर क्यों हर मस्जिद में शिवलिंग खोजा जाए? मोहन भागवत ने यह भी कहा कि लोगों को हर दिन एक नए मुद्दे को नहीं उछालना चाहिए। उनका यह कहना भी उल्लेखनीय है कि जो लोग अदालत का रुख करते हैं, उन्हें अवश्य ही उसके निर्णय को भी स्वीकार करना चाहिए। संविधान और न्यायिक तंत्र पवित्र हैं, जिनका सम्मान हर हाल में किया जाना चाहिए।

निरंकुश तत्वों पर नियंत्रण जरूरी

इंटरनेट मीडिया और टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में जिस प्रकार की भद्दी, अश्लील एवं ओछी भाषा एवं भाव-भंगिमाओं का प्रदर्शन हो रहा है, उससे यही लगता है कि ऐसा करने वाले शायद भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 295 के प्रविधानों या ऐसे ही उन अन्य कानूनों से परिचित नहीं हैं, जो आपत्तिजनक बयानों के मामले में कड़ी कार्रवाई निर्धारित करते हैं। ऐसे मामलों में तीन साल तक की सजा और हर्जाना या दोनों ही भुगतने पड़ सकते हैं। टेलीविजन पर होने वाली बहसें बेलगाम होकर सांप्रदायिक स्थिति को बिगाड़ने में अहम भूमिका निभा रही हैं। यदि इन बहसों में मर्यादा रेखा लांघने वालों पर आईपीसी की इस धारा का उपयोग नहीं किया गया तो स्थिति इतनी बिगड़ सकती है कि उस पर नियंत्रण करना मुश्किल हो जाए।

मोहन भागवत के विवेकसम्मत सुझाव पर अमल करते हुए भाजपा ने कदम भी उठाए हैं। इसी कड़ी में पार्टी ने अपनी एक प्रवक्ता पर कार्रवाई करते हुए उन्हें निलंबित कर दिया। दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज की है। उन्होंने माफी मांगने के साथ अपनी सफाई में यह भी कहा कि टीवी चैनल पर हो रही बहस में भगवान शिव को लगातार अपमानित करने से उनका धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने आवेश में वह बात कह दी, जिस पर हंगामा खड़ा कर दिया गया। उनकी मानें तो उन्होंने जो कहा वह हदीस का हिस्सा है और मुस्लिम समाज उससे अवगत भी है। प्रतीत होता है कि उबाल उस टिप्पणी की विषयवस्तु को लेकर नहीं, बल्कि उस लहजे को लेकर है, जिसमें वह बात कही गई। जो भी हो, इसका निर्धारण तो अदालत ही करेगी। इसीलिए कानून एवं व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियों के लिए यह आवश्यक है कि वे पूरी फुटेज देखकर यह पड़ताल करें कि किसने आईपीसी के प्रविधानों का उल्लंघन कर धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली बयानबाजी की। भाजपा ने अपने एक अन्य प्रवक्ता को भी उनके विवादित ट्वीट के लिए निष्कासित किया है। इस प्रवक्ता के खिलाफ भी रिपोर्ट दर्ज की गई है।

कानून एवं व्यवस्था से जुड़ी एजेंसियों को सजगता दिखाना इसलिए और जरूरी है, क्योंकि टीवी चैनलों पर आने वाले मेहमान हिंदुत्व को लेकर धुआंधार अनर्गल प्रलाप में लगे हुए हैं। टीवी चैनलों की बहसों में हिंदू देवी-देवताओं को लेकर जिस प्रकार की ओछी एवं अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है, उस पर अगर हिंदू भी मुस्लिमों की भांति भड़कने लगें तब देश के हर शहर में रोज हिंसा होगी। ट्विटर, फेसबुक और वॉट्सएप के इस दौर में भारत में जिस तरह के नए लोकतंत्र का उभार हो रहा है, उसमें मुसलमानों को धीरज रखने और सहिष्णु होने का अभ्यस्त होने की आवश्यकता है। जब उनके मुल्ला और कथित प्रवक्ता हिंदुओं को लेकर सार्वजनिक रूप से गैर-जिम्मेदाराना बयान देने के साथ, मौत की धमकी देते, जगह-जगह हिंसा भड़काते या जुमे की नमाज के बाद सड़कों पर लामबंद होने की कवायद करते दिखते हों तो उन्हें अति-संवेदनशील होने का कोई अधिकार नहीं रह जाता। यदि हम देश के पंथनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो इस प्रकार की हिंसक गतिविधियों से कड़ाई से निपटना होगा। इस मामले में उप्र सरकार ने एक मिसाल कायम की है। योगी सरकार कानपुर में हिंसा भड़काने वालों के बैंक खाते खंगालने से लेकर उनकी संपत्तियों पर बुलडोजर चलाकर कड़ा संदेश दे रही है। जब भाजपा ने अपने प्रवक्ताओं पर कार्रवाई कर अपनी ओर से पहल कर दी है, तब पूरा दारोमदार ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और ऐसे ही अन्य मुस्लिम संगठनों पर है कि वे इस कार्रवाई और संघ प्रमुख मोहन भागवत के कथन के मर्म को समझें। यदि वे स्वतंत्रता के बाद से देश में कायम पंथनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक परंपराओं का सम्मान करते हैं और सामाजिक सौहार्द की दिशा में योगदान देना चाहते हैं तो उन्हें भी अपने पाले में खड़े कट्टरपंथी तत्वों पर लगाम कसनी होगी।

सभ्यताओं की लड़ाई से जंग की ओर

दरअसल, गंगा-जमुनी तहजीब की बात करने वाले ये तमाम जिम्मेदार लोग इस हिंसा, पत्थरबाजी और अराजकता का ठीकरा इस्लाम के सिर नहीं आने देना चाहते हैं। क्योंकि, अगर ऐसा हो गया, तो देश के मुस्लिमों का एक वर्ग सीधे तौर पर मजहबी धर्मांधता से घिरा हुआ घोषित हो जाएगा। इन प्रदर्शनकारी मुस्लिमों को बाहरी तत्व बताकर तमाम जिम्मेदार लोग केवल अपनी गर्दन बचाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि, इन मुस्लिम प्रदर्शनकारियों में से एक भी पाकिस्तान या अन्य इस्लामिक देश से नहीं आया था। ये सभी इसी भारत देश के बाशिंदे हैं। धर्मनिरपेक्षता का नारा देने वाला मुस्लिमों का एक वर्ग खुलेआम लोगों के बीच भड़काऊ तकरीरें करता है। और, उनके अंदर की मजहबी कट्टरता को और बढ़ाता है।

कहना गलत नहीं होगा कि इंटरनेट की सर्वसुलभता ने रजा अकादमी, पीएफआई जैसे दर्जनों मुस्लिम संगठन, जो किसी समय खुलकर अपने प्रदर्शनों को अंजाम देते थे। अब उन्हें बेनकाब होने में समय नहीं लगता है। बात जम्मू-कश्मीर के किसी मौलाना के भड़काऊ भाषण देने की हो या कर्नाटक में नुपुर शर्मा के पुतले को फांसी देने की। पलक झपकते ही ये चीजें सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती हैं। खैर, इसे किनारे रखिए। बीते साल तमिलनाडु के किसी हिस्से में मुस्लिमों के बहुसंख्यक होने पर हिंदुओं को त्योहार मनाने से रोकने का फैसला कर लिया जाता है। और, इस मामले में मद्रास हाईकोर्ट को फैसला देना पड़ता है। ऐसी खबरें भी अब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर छिपी नहीं रहती हैं। आसान शब्दों में कहा जाए, तो यह एक तरीके से सभ्यताओं की लड़ाई ही नजर आती है।

राष्ट्रीय प्रतिष्ठा व सद्भाव के लिए समरसता जरूरी

भाजपा के प्रवक्ताओं की बेलगाम बयानबाजी के चलते इस्लामिक देशों से जो तल्ख प्रतिक्रिया सामने आई है वह स्वाभाविक है। निश्चय ही यह देश की प्रतिष्ठा को आंच आने वाली स्थिति है जो भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल भी खड़ा करती है। निश्चित रूप से जिस उग्र दक्षिणपंथी राजनीति का सुख अब तक भाजपा ले रही थी, अब उसकी कीमत चुकाने का वक्त आया है। ऐसा नहीं है कि भाजपा प्रवक्ता द्वारा अल्पसंख्यकों के आराध्य को लेकर की गई कथित अमर्यादित टिप्पणी अकेला मामला हो। तमाम दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा सांप्रदायिक रुझान की टिप्पणियां गाहे-बगाहे सामने आती रही हैं। दूसरे हालिया बयानबाजी के बाद डैमेज कंट्रोल की कवायद भाजपा की तरफ से देर से की गई, जिसकी कीमत देश की प्रतिष्ठा पर आई आंच के रूप में चुकानी पड़ रही है। अरब देशों समेत पाक-ईरान आदि देशों की तल्ख प्रतिक्रिया को इस रूप में देखा जा सकता है। भाजपा ने आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई तब की जब भारत से कारोबारी रिश्ते रखने वाले अरब राष्ट्रों ने तल्ख रवैया दिखाया। जाहिरा तौर पर दुनिया में यह संकेत गया कि देश के राजनीतिक विमर्श में बड़ी गिरावट उत्पन्न हुई है। कई देशों का राजनयिक विरोध इसकी बानगी भर है। कई खाड़ी देशों में भारतीय सामान के बहिष्कार की चेतावनी के अलावा उन भारतीयों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, जो वहां काम करते हैं। हाल के दिनों में टीवी पर होने वाली सांप्रदायिक बहसों को प्राइम टाइम कार्यक्रमों की सफलता का जरिया बना लिया गया। गैरजिम्मेदार एंकर इसमें उकसाने का कार्य करते हैं। हालांकि, विवादित बयान आम भारतीय की राय नहीं है और न ही वे सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन वे सतारूढ़ पार्टी के पदों पर तो रहे हैं। भाजपा को अब सोचना होगा कि विकास के मुद्दों से इतर विभाजनकारी राजनीति उसके व देश के लिए घातक हो सकती है।

निरंकुश तत्वों पर नियंत्रण जरूरी

आज हिंदू और मुसलमान दोनों ही वर्गों को यह समझना होगा कि उन्हें एक-दूसरे के प्रति सद्भावना रखते हुए देश की प्रगति में अपना योगदान करना होगा। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि दोनों ही वर्गों में ऐसे लोग बहुसंख्या में हैं, परंतु दुर्भाग्य से दोनों ओर कुछ ऐसे लोग हो गए हैं, जो माहौल खराब कर सांप्रदायिक परिवेश में विष घोलने में लगे हैं। हिंदुओं में कुछ धर्मगुरु ऐसी बातें करते हैं जैसे वे दिमागी दिवालियापन से ग्रस्त हों। कोई नरसंहार की बात करता है, कोई लोगों को पाकिस्तान भेजने की बात करता है, कोई दस बच्चे पैदा करने की बात कहता है। मुसलमानों को देखा जाए तो उनके धर्मगुरु इंटरनेट मीडिया पर ऐसी बकवास करते हैं जो केवल कोई असंतुलित मस्तिष्क का मतांध आदमी ही कर सकता है। एक लेखक के अनुसार गोरी, गजनी, खिलजी, तुगलक, बाबर और औरंगजेब के समय से चली आ रही इस्लामिक कट्टरता आज भी एक समूह में उसी प्रकार मौजूद है। ये लोग जब तक अपने समुदाय के गौरव की तलाश में विदेशी आक्रांताओं का महिमामंडन करते रहेंगे तब तक सांप्रदायिक वैमनस्य बना रहेगा। मुसलमानों का बहुत बड़ा दुर्भाग्य यह रहा है कि स्वतंत्रता पूर्व वे अंग्रेजों के मोहरे बने रहे और बाद में कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति के कारण उनके सोच में संतुलन नहीं रहा। दूसरी ओर हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि उनके कुछ धर्मगुरु अनर्गल बातें करते रहते हैं और कुछ निरंकुश तत्व भगवा वस्त्र पहनकर कानून को हाथ में लेने लगे हैं। इन पर प्रभावी नियंत्रण की जरूरत है। मीडिया पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है, कुछ टीवी चैनल लोगों को जहर उगलने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। एडिटर्स गिल्ड ने भी इस विषय पर चिंता प्रकट की है। विधिवेत्ता ताहिर महमूद के अनुसार मोहम्मद साहब ने एक जगह कहा है कि उन्हें भारत से अरीज-उल-रूहानिया यानी अध्यात्म की खुशबू आती है। इस देश के मुसलमान भी जिस दिन यहां की आध्यात्मिक सुगंधि का अनुभव करने लगेंगे तब शायद देश के सांप्रदायिक माहौल में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएगा। उनका कर्तव्य है कि वे भारत को 'दारुल अमनÓ यानी शांति की धरती बनाए रखें और सुनिश्चित करें कि यह देश कभी 'दारुल हरबÓ यानी अशांति का अखाड़ा न बने।

आस्था बनाम हिंसा

लोकतंत्र में किसी मसले पर विरोध प्रदर्शन करना लोगों का नागरिक अधिकार है, पर हिंसक बर्ताव करना, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। किसी को भी किसी की आस्था पर चोट पहुंचाने का अधिकार नहीं है। इसके लिए उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जा सकती है। पैगंबर पर दिए बयान को लेकर दुनियाभर में नाराजगी जाहिर की गई। उस पर सरकार ने संबंधित नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की भी है। उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करा दी गई है। इसलिए अपेक्षा की जा रही थी कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोग न्यायालय के फैसले का इंतजार करेंगे और ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे, जिससे देश और समाज में अस्थिरता पैदा हो। पर कुछ शरारती तत्वों को शायद यह मुद्दा एक अवसर की तरह हाथ लगा है और वे इसे भुनाने का प्रयास कर रहे हैं। यही कारण है कि उन्होंने विरोध प्रदर्शन के लिए मस्जिदों को चुना। सब जानते हैं कि जुमे की नमाज के लिए भारी संख्या में लोग जुटते हैं और उन्हें उत्तेजित कर अपना मकसद आसानी से साधा जा सकता है। वरना उनका मकसद सचमुच केवल विरोध प्रदर्शन करना होता, तो वे कोई और जगह चुनते। धार्मिक भावनाओं को भड़काकर अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने वाले हर धर्म में मौजूद हैं। इस्लाम इससे अछूता नहीं है। यह बात इस समुदाय के लोग भी अच्छी तरह जानते हैं। फिर भी वे कैसे अपना विवेक खोकर हिंसक भीड़ में तब्दील हो गए। शायद लंबे समय से उनके भीतर दबा आक्रोश और असुरक्षाबोध अचानक प्रकट हुआ होगा। मगर इन घटनाओं के लिए पूरे समुदाय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उन लोगों की पहचान होनी चाहिए, जिन्होंने साजिशन भीड़ को हमलावर बना दिया। फिर यह सवाल अपनी जगह है कि कैसे खुफिया एजंसियों और प्रशासन को ऐसी घटना की आशंका नहीं हुई। गत दिनों ही कानपुर में, जुमे के रोज हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ था। उस घटना से कोई सबक लेना क्यों जरूरी नहीं समझा गया कि इस जुमे को भी उप्र सहित कई राज्यों में वैसी ही घटना हो गई।

नमाज के बाद पत्थरबाजी या हिंसा किस किताब का हिस्सा?

जुमे की नमाज के बाद पत्थरबाजी या हिंसा का ये पहला मामला नहीं है। जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजी का इतिहास जुमे की नमाज के साथ ही जुड़ा हुआ है। हालांकि, अब कश्मीर में पत्थरबाजी पुरानी याद हो गई है। और, अब राज्य में हिंदुओं की टारगेट किलिंग को अंजाम दिया जाने लगा है। हां, ये जरूर कहा जा सकता है कि इसके लिए जुमे का इंतजार नहीं किया जाता है। वैसे, गत दिनों कानपुर में हुई हिंसा भी शुक्रवार की नमाज के बाद ही भड़की थी। सीएए के खिलाफ प्रदर्शनों से लेकर तीन तलाक के खिलाफ तकरीरें जुमे के दिन ही दी जाती हैं। क्योंकि, इस दिन मस्जिदों में बड़ी संख्या में मुसलमान इकट्ठा होते हैं। लेकिन, इन तमाम बातों को अगर दरकिनार भी कर दिया जाए। तो, सबसे अहम सवाल यही है कि जुमे की नमाज के बाद पत्थरबाजी या हिंसा किस किताब का हिस्सा है? देश कानून और संविधान से चलता है। तो, प्रदर्शन कीजिए। लेकिन, पत्थरबाजी और हिंसा की जाहिलता का प्रदर्शन मत कीजिए।

- राजेंद्र आगाल

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