इन दिनों आलू-प्याज और टमाटर की कीमतें आसमान छूने लगी हैं। अब तक शायद ही कभी आलू की कीमतें पचास रुपए के पार पहुंची हों। लेकिन इस बार प्याज के साथ आलू भी प्रतियोगिता करते नजर आ रहा है। टमाटर तो बारिश के दिनों में अक्सर लाल होता रहा है। इसलिए उसकी महंगाई से हैरत नहीं हुई है। आलू-प्याज की इस बार की महंगाई अचंभे में डाल रही है।
मप्र सहित देशभर में बिचौलियों और व्यापारियों ने प्याज के गोरखधंधे में कितनी मुनाफाखोरी की है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मार्च-अप्रैल में किसानों ने जिस प्याज को 7 रुपए किलो की दर से बेचा था, वह पिछले 5 माह के दौरान 60 से 90 रुपए प्रति किलो के दर से बिकी। भारत में सबसे ज्यादा प्याज महाराष्ट्र के नासिक जिले में होता है और वहीं की लासलगांव की मंडी से प्याज के दाम तय होते हैं। नासिक जिले के कैलाश जाधव ने लॉकडाउन के दौरान अप्रैल-मई में अपना प्याज 700 रुपए क्विंटल बेच दिया था, लेकिन अब उसी मंडी में प्याज 6000-9000 रुपए प्रति क्विंटल के आसपास बिक रहा है। बढ़ी महंगाई का फायदा कैलाश जाधव को नहीं मिल पाया। मौजूदा दौर का ज्यादातर प्याज कारोबारियों और बड़े किसानों का है। लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि इस महंगाई से किसान को कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। फायदा मिल रहा है लेकिन महंगाई के मुकाबले काफी कम है।
ध्यान रहे कि मप्र में लगभग 6 से 8 लाख किसान पूरी तरह प्याज की खेती पर निर्भर हैं। प्याज की ज्यादातर खेती मालवा और निमाड़ क्षेत्र में होती है। देश में मप्र दूसरा सबसे बड़ा प्याज उत्पादक राज्य है। प्रदेश में सालाना 102.9 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में खेती होती है। प्रदेश में प्याज की पैदावार तीनों मौसम में यानी खरीफ, लेट खरीफ और रबी में होती है। प्रदेश में मुख्य प्याज उत्पादक जिलों में इंदौर, सागर, शाजापुर, खंडवा, उज्जैन, देवास, रतलाम, शिवपुरी, मालवा, राजगढ़, धार, सतना, खरगौन और छिंदवाड़ा है। कृषि मामलों के विशेषज्ञ और मप्र की पूर्व कमलनाथ सरकार में कृषि सलाहकार रहे केदार सिरोही कहते हैं कि प्याज के भाव स्थिर नहीं रह पाते। कभी ये डेढ़-दो रुपए प्रति किलोग्राम तो कभी इनका भाव 22 रुपए और कभी 100 रूपए प्रति किलो तक भी पहुंच जाता है। इसकी वजह है इसका सरकारी आंकड़े का सही नहीं होना। सरकारी आंकड़ा पिछले आंकड़े के अनुमान के आधार पर होता है, जिससे स्टॉक पोजीशन सही नहीं होती है। आंकड़ों में जब प्याज की कमी बताई जाती है, तब बंपर आवक हो जाती है, जबकि व्यापारी जमीनी स्तर पर कार्य करता है, वह इसका लाभ उठा ले जाता है।
मप्र सहित देश में साल में दो बार प्याज की खेती होती है। जो प्याज इस वक्त देश में खाया जा रहा है वो मार्च-अप्रैल का खुदा हुआ है। जिसका किसान भंडारण करते हैं, और जरूरत के मुताबिक बेचते हैं। आमतौर पर भी भंडारण के पारंपरिक तरीकों के कारण लगभग एक तिहाई प्याज खराब ही होता है। ज्यादा उत्पादन के बावजूद विदेश से प्याज आयात करने का सबसे बड़ा कारण यही है। हम अपने प्याज को सुरक्षित नहीं रख पाते और किसान मजबूरी में उसे औने-पौने दाम में बेचते हैं। फिर भी बाद में प्याज खराब होता है और जरूरत पूरी करने के लिए हम विदेश से महंगा प्याज मंगाते हैं। उद्यानिकी विभाग के आंकड़ों की मानें तो मप्र में 8 हजार गोदाम भी नहीं है। हालांकि, गोदाम बनाने के लिए योजनाएं तो बनी, लेकिन प्रोत्साहन के आभाव में पूरी तरह से धरातल पर नहीं आ सकी। मप्र के बड़े प्याज के उत्पादक जिले आगर, शाजापुर, रतलाम, शिवपुरी, उज्जैन, देवास, इंदौर, रीवा में भी लोगों को महंगा प्याज ही खाना पड़ रहा है। कृषि मामलों के विशेषज्ञ केदार सिरोही कहते हैं कि लगभग 40 सालों से प्याज के किसान एक तरह की समस्या से जूझ रहे हैं। इसके बावजूद बीज अनुसंधान, फसल के तरीके और प्याज के किसानों को तकनीकी मदद के लिए खास प्रयास नहीं हो रहे हैं। यही कारण है कि किसान पर मौसम डोमिनेट करता है और बारिश होते ही प्याज के खेत, नर्सरी और रखी फसल खराब हो जाती है। सिरोही कहते हैं कि महंगे बीज के इस्तेमाल और खराब मौसम से जूझकर किसी तरह किसान प्याज तैयार कर देता है तो उसके पास दो रास्ते होते हैं। पहला कि वह अपने प्याज को अपने पास रखे और सही दाम मिलने पर बेचे। दूसरा कि वह ज्यादा उत्पादन के समय अपनी फसल कम दाम में बेच दे।
40 लाख टन पैदावार, फिर भी किसान बेहाल
मप्र में प्याज की पैदावार 40 लाख टन के पार है, जो खपत की तुलना में तीन गुना तक अधिक है। फिर भी इसकी बढ़ी कीमतें आंखों में आंसू ला रही है। पिछले साल रिकार्ड 150 रुपए किलो तक प्याज महंगा था, जबकि अब 60 से 90 रुपए किलो तक भाव है। इसकी मुख्य वजह प्रदेश में प्याज भंडारण के लिए पर्याप्त गोदाम न होने हैं। इस कारण मार्च-अप्रैल में किसान कौड़ियों के भाव पर प्याज बेच देते हैं, जो व्यापारी खरीदकर दूसरे राज्यों में पहुंचाते हैं। इससे सितंबर-अक्टूबर तक प्रदेश का प्याज खत्म हो जाता है और महाराष्ट्र व कर्नाटक पर निर्भर हो जाते हैं। व्यापारी वहां से प्याज लाकर ऊंचे दाम पर बेचते हैं। अबकी बार अधिक बारिश होने के कारण महाराष्ट्र व कर्नाटक की फसलें भी बर्बाद हुई हैं। इस कारण वहां से प्याज नहीं आ रही है। ऐसे में बिचौलिए मांग और आपूर्ति का माहौल बना रहे हैं। जो किसान सहेजकर रखे प्याज को मंडियों में बेचने आते हैं, उनसे बाहर या गांव में पहुंचकर ही खरीद लिया जाता है। फिर महाराष्ट्र, तेलंगाना, कनार्टक में भेज देते हैं। बचा प्याज स्थानीय फुटकर व्यापारी को ज्यादा कीमत पर दिया जाता है, जो बाजार में आकर दोगुना महंगा हो जाता है।
- धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया