प्रणब मुखर्जी देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर भी रहे और सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित भी हुए लेकिन एक बात का मलाल ताउम्र रह ही गया। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपने लंबे राजनीतिक जीवन में दो बार प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए और सार्वजनिक तौर पर भी इसे करीब-करीब स्वीकार करने में गुरेज नहीं किया। केवल वो ही नहीं बल्कि गवर्नेंस के उनके लंबे अनुभव और राजनीतिक समझ के कायल नेताओं और नौकरशाहों के बीच एक टैगलाइन भी मशहूर रही है- सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में से एक जो भारत को कभी नहीं मिला।
कांग्रेस की पृष्ठभूमि से आने वाले प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन में बैठे-बैठे अपनी पुरानी पार्टी का घोर पतन भी देखा और कट्टर राजनीतिक विरोधी विचारधारा की सरकार के साथ भी उतनी ही शिद्दत से काम किया। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के बाद बेशक कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन पहुंचाया, लेकिन जो सम्मान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया वैसा किसी प्रधानमंत्री ने किसी राष्ट्रपति को दिया हो, ऐसा देखने को तो नहीं ही मिला है।
2014 में यूपीए शासन के 10 साल हो चुके थे और वो चुनावी साल रहा। गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्र के नाम संबोधन में बाकी बातों के बीच तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का एक बात पर खास जोर दिखा- मजबूत सरकार। प्रणब मुखर्जी ने लोगों से वोट देकर बहुमत वाली सरकार चुनने की अपील की थी। गठबंधन की सरकारों से शायद उनका मोहभंग हो चुका था। यूपीए की गठबंधन सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे थे। प्रणब मुखर्जी को समझ आ चुका था कि देश के लिए बहुमत की सरकार की अहमियत क्या होती है।
कांग्रेस नेतृत्व और दूसरे साथी नेताओं ने भले ही प्रणब मुखर्जी को कितना भी निराश क्यों न किया हो, देशवासियों ने राष्ट्र के नाम संबोधन के संदेश को महामंत्र की तरह लिया और भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत से जनादेश देते हुए केंद्र में मजबूत सरकार को भेज दिया और नरेंद्र मोदी गुजरात से पहुंचकर दिल्ली में प्रधानमंत्री बने। चुनाव नतीजे आने के बाद जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रपति भवन प्रणब मुखर्जी से मिलने पहुंचे तो इतनी गर्मजोशी से स्वागत किया जैसे देश के मतदाताओं को धन्यवाद दे रहे हों। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी प्रणब मुखर्जी के उस संबोधन के प्रति आभार जताया जिसमें राष्ट्रपति ने मजबूत सरकार की अपील की थी।
2019 के चुनाव के दौरान भी ऐसा ही देखने को मिला जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से बहुमत वाली मजबूत सरकार के लिए वोट करने की अपील की। तब प्रधानमंत्री मोदी ने समझाया कि जब बहुमत की मजबूत सरकार का प्रधानमंत्री दुनिया में कही भी जाता है तो उसे भारत की मजबूती के साथ हाथोंहाथ लिया जाता है और वैसे ही गर्मजोशी से स्वागत किया जाता है। बिलकुल ही विरोधी राजनीतिक विचारधारा की पृष्ठभूमि से आने वाले प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कोई अलग व्यवहार करना तो दूर, दोनों के बीच ऐसा रिश्ता कायम हुआ जिसकी मिसाल कम ही मिलती है।
1969 में राजनीति में प्रवेश करने वाले प्रणब दा उस समय तक कांग्रस में अपनी अच्छी खासी धाक बना चुके थे। सबका यही अनुमान था कि इंदिरा गांधी के बाद प्रणब दा ही प्रधानमंत्री पद के असल दावेदार होंगे लेकिन राजीव गांधी से ज्यादा अनुभवी होने के बाद भी प्रणब दा को प्रधानमंत्री पद नसीब नहीं हुआ। राजीव गांधी के दौर में कांग्रेस से दूरियां बढ़ने और पीवी नरसिम्हा राव के समय दोबारा से कांग्रेस में अपनी जगह पक्की करने वाले प्रणब दा को सोनिया गांधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस से कुछ उम्मीदें दिखीं। लोगों को लगा कि सोनिया अगर खुद प्रधानमंत्री नहीं बनतीं तो इस बार प्रणब दा का नंबर पक्का है। मगर सभी अनुमान एक बार फिर से गलत साबित हुए और इस बार डॉ. मनमोहन सिंह ने बाजी मार ली। अंत में प्रणब दा को 2012 में कांग्रेस की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया और वह राष्ट्रपति चुने गए। इस तरह उन्हें अपनी कर्तव्यनिष्ठा का फल मिला। वित्त मंत्री से लेकर विदेश मंत्री तक का पदभार संभालने वाले प्रणब मुखर्जी पहले ऐसे वित्त मंत्री थे जिन्होंने 5 बार देश का बजट पेश किया। पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑफिस में एक क्लर्क की नौकरी से देश के सबसे शीर्ष पद तक पहुंचने का सफर ही उनकी मेहनत की कहानी कहता है।
संघ के खिलाफ भी संघ के साथ भी
भारत के 13वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने वाले प्रणब मुखर्जी के आरएसएस से रिश्ते बनते बिगड़ते रहे हैं। एक कांग्रेसी होने के नाते प्रणब मुखर्जी भी संघ के कटु आलोचक रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें वो प्रणब दा ही थे जिन्होंने सांप्रदायिकता और हिंसा में संघ की भूमिका पर सवाल उठाए थे। उन्होंने ही संघ को राष्ट्र विरोधी बताया था और कहा था कि ऐसे किसी भी संगठन की देश को जरूरत नहीं। लेकिन शायद समय के साथ प्रणब दा ने ये सीख लिया था कि हर जगह कटुवचन बोलना सही नहीं, कई बार समय के बहाव से साथ भी बहना जरूरी होता है। ऐसी ही सोच ने उन्हें कभी धर्म संकट में नहीं पड़ने दिया। 2018 में प्रणब मुखर्जी को आरएसएस के संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित होने का न्यौता मिला। उस समय की इस खबर ने सबको चौंका दिया और इससे भी चौंकाने वाली बात ये रही कि प्रणब दा ने ये न्यौता स्वीकार भी कर लिया। नागपुर में हो रहे इस कार्यक्रम में शामिल होने से पहले बहुत तरह के कयास लगाए गए लेकिन प्रणब दा ने भी साबित कर दिया कि वह राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। उन्होंने ऐसी स्पीच दी कि उससे उनकी पार्टी कांग्रेस को भी बुरा नहीं लगा और संघ भी खुश हो गया। हालांकि विरोध के भी कई स्वर उठे लेकिन इसका प्रणब दा पर रत्ती भर फर्क ना दिखा।
- श्याम सिंह सिकरवार