26-Dec-2020 12:00 AM
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नवंबर 2000 में मप्र से अलग होकर छत्तीसगढ़ का गठन हुआ तो उसमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने बड़ी भूमिका निभाई थी। नया राज्य बनाने के पीछे तर्क दिया गया था कि वहां प्रचुर मात्रा में संसाधन हैं, लेकिन उसका फायदा स्थानीय निवासियों को नहीं मिल रहा है। सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से भी अलग होने की वजह से वहां विकास नहीं हो पा रहा है। यह बात सही थी कि बिजली, खनिज और वन संपदा के लिहाज से वह क्षेत्र जितना समृद्ध था, वहां के स्थानीय निवासी उतने ही गरीब थे। यह माना गया कि नए राज्य में संसाधनों का फायदा स्थानीय निवासियों को मिलेगा और उनके जीवन में गुणात्मक बदलाव आएंगे।
छत्तीसगढ़ के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव कहते हैं, अलग राज्य सरीखे भावनात्मक मुद्दे का विरोध करके आप राजनीति नहीं कर सकते हैं। अलग राज्य बनाना उस समय की न केवल राजनीतिक आवश्यकता थी, बल्कि क्षेत्र के विकास के लिए भी यह जरूरी था। अंग्रेजों के समय भी छत्तीसगढ़ अलग कमिश्नरी हुआ करती थी, जिसे 1956 में मप्र के साथ मिला दिया गया। कागजों पर तर्क देकर राज्य तो बना दिया गया, लेकिन 20 साल बाद भी बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। मानव विकास सूचकांकों में आज भी छत्तीसगढ़ देश के अन्य राज्यों की तुलना में वहीं हैं जहां अलग होने से पहले हुआ करता था। यहां स्थिति निरंतर राष्ट्रीय औसत से खराब बनी हुई है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार देश के 30 फीसदी घरों में पाइप से पेयजल पहुंचाया जाता था, जबकि छत्तीसगढ़ में 19.6 फीसदी था। आज भी इसकी एक-तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। शिशु मृत्यु दर और कुपोषण के मामले में भी स्थिति राष्ट्रीय औसत से खराब है। उपरोक्त सर्वे के अनुसार 2015-16 में शिशु मृत्यु दर का राष्ट्रीय औसत 41 प्रति 1000 था, जबकि छत्तीसगढ़ में 54 था। शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में मूलभूत सुविधाओं का भारी अभाव हुआ है। आर्थिक विषमता के विरोध में शुरू हुई नक्सली समस्या आज भी बनी हुई है।
केवल राज्य की विकास दर के आंकड़े राष्ट्रीय औसत से अधिक हैं। छत्तीसगढ़ की औसत विकास दर सात फीसदी रही है। 2010-11 में जब भारत की विकास दर 8.9 फीसदी थी, तब छत्तीसगढ़ की 10.6 फीसदी पहुंच गई थी। हालांकि दोनों ही राज्यों में विकास दर, प्रति व्यक्ति आय और कुल राजस्व में बढ़ोतरी लगभग समान है। सामाजिक विकास पर कई अध्ययन कर चुके सामाजिक कार्यकर्ता गुरुचरण सचदेव कहते हैं कि छोटे राज्य बनने से छत्तीसगढ़ को फायदा नहीं मिल पाया है। आज भी वहां भयावह आर्थिक विषमता है। मानव विकास सूचकांकों के मामले में यह निचले पायदान पर है। बड़ी आबादी ऐसी है जिसे भरपेट पौष्टिक भोजन भी नसीब नहीं हो रहा है। आज भी नवजात बच्चे बड़ी संख्या में दम तोड़ रहे हैं। सचदेव कहते हैं, संसाधनों की कोई कमी नहीं है। सामाजिक विकास से संबंधित ज्यादातर विभाग आवंटित राशि का उपयोग ही नहीं कर पाते हैं। राजनीतिक स्थिरता के बावजूद सामाजिक सूचकांकों में सुधार की गति तेज नहीं हो पाई है।
आदिवासी कलाओं पर लंबे समय से काम कर रहीं डॉ. मीनाक्षी पाठक कहती हैं, हर भूगोल की अपनी कुछ खासियत होती है। बड़े राज्यों में इनको लेकर विशेष नीति नहीं बनती, इसलिए छत्तीसगढ़ का बनना सही फैसला था। वहां के लोगों की सभ्यता और संस्कृति को सहेजने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन वहां की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए विकास की रूपरेखा तय नहीं की गई। यह वहां के राजनीतिक नेतृत्व की विफलता है।
गठन के 20 साल के दौरान सबसे महत्वपूर्ण काम बिजली, सड़क और कृषि क्षेत्र में हुआ है। कृषि विकास दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा रही है। बिजली उत्पादन और आधारभूत संरचना के निर्माण पर भी काफी खर्च हुआ है। लेकिन आर्थिक विषमता की खाई बढ़ती जा रही है। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति की बड़ी जनसंख्या है। उनके और उनके क्षेत्र के विकास के लिए विशेष योजनाएं बनाई जाती हैं, अलग बजट आवंटित होता है, लेकिन जमीन पर 20 साल बाद भी बड़ा बदलाव नहीं दिखता है।
विशेषज्ञ इसके लिए नेताओं को कसूरवार मानते हैं। उनका मानना है कि अलग राज्य बनाने के पीछे की मूल भावना को समझकर विकास की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए, जो नहीं होता। राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं कि 20 साल पहले जो भी राज्य बने वे सब कई मायनों में मूल राज्य के दूसरे हिस्से से अलग थे। वहां के संसाधनों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विकास का नया ब्लू प्रिंट तैयार करना चाहिए था।
दो दशक बाद भी मकसद अधूरे
2000 में जब तीन नए अपेक्षाकृत छोटे राज्यों उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया गया था, तब कहा गया था कि ये राज्य न सिर्फ लोगों की भावनाओं और पहचान को तुष्ट करेंगे, बल्कि विशाल राज्यों उप्र, बिहार और मप्र से टूटकर बने ये छोटी प्रशासनिक इकाइयां विकास के पैमाने पर खरी उतरेंगी और स्थानीय आबादी को अपने राज्य में ही संबल मिलेगा। लेकिन, क्या दो दशक बाद वे वादे, वे मकसद कहीं पूरे हुए? क्या इन तीनों राज्यों से रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों में जाना थमा? क्या शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन-यापन की स्थितियां सुधरीं? हालात तो विपरीत छवि पेश करते हैं, जैसा कि इन राज्यों की रिपोर्ट में हम देख सकेंगे। कोरोना महामारी के दौर में भी सबसे चुनौतीपूर्ण स्थितियां थीं। अलबत्ता तीनों राज्यों में राजनीति के लिहाज से जरूर लगातार सरगर्मियां बनी रही हैं। हो भी क्यों नहीं, क्योंकि इन तीनों में अलग राज्य के लिए आंदोलन पर कांग्रेसी सरकारें आंखें मूंदे रहीं लेकिन तत्कालीन एनडीए सरकार को अपना जनाधार बनाने का इसमें अच्छा मौका सूझा। तब के उसके रणनीतिकार उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने इसकी बाकायदा रूपरेखा रखी और छोटे राज्यों की अवधारणा पर जोर दिया।
- रायपुर से टीपी सिंह